मध्यवर्गीय अधूरेपन की पूरी गाथा : ‘आधे अधूरे’ की सशक्त प्रस्तुति

नाट्य समीक्षक की कलम से गुरुग्राम। गुरुग्राम की रंग संस्था ‘रंग परिवर्तन’ में रविवार 27 अप्रैल की शाम अप्रतिम साहित्यकार मोहन राकेश के बहुमंचित नाटक ‘आधे अधूरे’ का सुविख्यात नाट्य निर्देशक महेश वशिष्ठ के निर्देशन में प्रभावशाली मंचन किया गया।‘ओमशिवपुरी’ के निर्देशन में दिशांतर द्वारा दिल्ली में फरवरी 1969 में ‘आधे अधूरे’ के प्रथम मंचन…

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महिला रचनाकारों पर केंद्रित “इरा” का मार्च अंक : स्त्री संवेदनाओं की ह्रदयस्पर्शी अभिव्यक्ति

कलमकार की कलम से “इरा” पत्रिका का मार्च अंक महिला रचनाकारों के सृजन पर केंद्रित है। पठनीय और संग्रहणीय इस अंक के आरंभ में अपने विचारशील और संतुलित संपादकीय (सशक्त महिला – कमजोर समाज) में अलका मिश्रा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के ऐतिहासिक विकासकम पर चर्चा करते हुए महिला सशक्तिकरण से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर बहुआयामी…

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प्रश्नचिह्न : साहित्यिक परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप

कलमकार की रिपोर्ट   संवेदनाओं को झकझोरती स्तरीय रचनाओं की सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति के साथ ‘प्रश्नचिन्ह’ पत्रिका का फरवरी 2025 का अंक मौजूदा साहित्यिक परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप करता है।  पत्रिका में शंकरानंद. डॉ. निर्मल, वीरेंद्र नारायण झा, ट्विंकल तोमर सिंह और वेद प्रकाश तिवारी की ह्रदयस्पर्शी कविताएं हैं।शंकरानंद अपनी मार्मिक कविता ‘जोशीमठ’ में पहाड़ दरकने से तबाह…

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अरुण कुमार त्रिपाठी मराठी कवि सुरेश भट्ट ने एक अद्भुत प्रेरणा गीत लिखा है। उसे अपनी अमृतवाणी देकर आशा भोंसले ने अमर कर दिया है। संयोग से यह गीत हमारे समय की एक पुकार जैसा लगता है। इसलिए पहले उसका मराठी पाठ प्रस्तुत करने का औचित्य बनता है। वैसे तो ध्यान से पढ़ने और सुनने पर मराठी कविता का अर्थ हिंदी भाषी तो क्या किसी भी भारतीय जन को समझ में आ जाएगा लेकिन सुविधा के लिए इस कविता का हिंदी पाठ भी दिया जाएगा। मराठी कविता का पाठ इस प्रकार हैः— थोड़ा उजेड़ ठेवा, अंधार फार झाला। पणती जपून ठेवा, अंधार फार झाला। आले चहू दिशानी, तूफान विस्मृतीचे। नाती जपून ठेवा, अंधार फार झाला। शोधाय कस्तूरीच्या, आहेत पारधीहे। हरणे जपून ठेवा, अंधार फार झाला। काव्व्या ठणात वीज, आहे पुन्हा टपून। धरती जपून ठेवा, अंधार फार झाला। शिशिरा तल्या हिमात हे, गोठतील श्वास। हृदये जपून ठेवा, अंधार फार झाला। इस कविता हिंदी अर्थ जितना मित्रों के सहयोग से मिल पाया वो इस प्रकार हैः--- थोड़ा उजाला रखो, अंधकार ज्यादा हो गया है। आ गया चारों ओर से, तूफान मतिभ्रम का। रिश्ते बनाकर रखो, अंधकार ज्यादा हो गया है। कस्तूरी तलाश में है यह पारधी, हिरण संभाल कर रखो। अंधकार ज्यादा हो गया है। काले बादलों में बिजली है तानकर, घर संभाल कर रखो, अंधेरा ज्यादा हो गया है। यह कविता हमारे समय में एक आर्तनाद, चेतावनी और आशा के दीए की तरह से लगती है। कई बार अपने चारों तरफ देखता हूं तो लगता है कि सचमुच मतिभ्रम के तूफान ने हमारे देश को घेर लिया है। जिस भी व्यक्ति में किसी प्रकार ज्ञान और विवेक बचा हुआ है उसे मारने के लिए पारधी बाण ताने घूम रहा है। भारत में झूठ और अहंकार के अधिनायकवाद ने जिस तरह से अपने काले बादलों के डैने फैला दिए हैं और उनके भीतर से डरावनी बिजली कड़क रही है उससे अब घर संभाल कर रखना कठिन हो रहा है। हमारी सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि हम न तो परंपरा और सनातन को ठीक तरह से समझ रहे हैं और न ही विज्ञान और उससे जुड़ी गैर युरोपीय आधुनिकता को। हम अपने और पराए के व्याकरण में इतने खो गए हैं कि हमें सत्ता, पूंजी और प्रौद्योगिकी के पाखंड के अलावा कुछ दिखता ही नहीं है। हमारी सारी संस्कृति, सारा धर्म और सारी चेतना एक इवेंट बनकर रह गए हैं। हमने उनके बाह्य रूप को अपने भीतर सनातन मूल्य की तरह से बिठा लिया है और संस्कृति, धर्म और चेतना के समस्त मूल्यों और उसकी अंतररात्मा को बहिष्कृत या विस्मृत कर दिया है। इसलिए सवाल उठता है कि इस तिमिर का निदान क्या उस थोड़े से अंधेर से होगा जिसका आह्वान मराठी कवि सुरेश भट्ट ने किया है? इस स्तंभकार का इशारा 144 साल बाद आयोजित हुए कुंभ और उसमें डुबकी लगाने के बजाय डूब जाने वाले महान मध्यवर्ग और जबरदस्ती डुबोए जा रहे सामान्य जन की ओर नहीं है। लेकिन उसकी ओर भी है। हमारा इशारा उन नफ़रती लोगों की ओर नहीं है जिन्होंने नई दिल्ली स्टेशन पर भीड़ और भगदड़ में लोगों के मारे जाने का सारा दोष रेलवे के उस मुस्लिम कर्मचारी पर थोप दिया है जिसने प्रयागराज जाने वाली गाड़ी का प्लेटफार्म बदला था लेकिन उनकी ओर भी है। हमारा इशारा उनकी ओर भी नहीं है जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी पढ़ाने और उनका विकास करने वाले व्यवसाय से जुड़े हैं या सरकार की तमाम वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में बड़े पदों पर काम करते हैं और डुबकी लगाने के लिए लालायित हैं व वीआईपी इंतजाम का सुख भोग कर परम धन्य हो रहे हैं। न ही उन वैज्ञानिकों की ओर है जो कुंभ में अमृत की तलाश करने गए थे जिनमें कुछ को वहां प्रदूषण मिला तो कुछ को वहां शुद्धता मिली। लेकिन उनकी ओर भी है। इशारा उनकी ओर नहीं है जो तीस साल पहले समाज और सरकार को नकार कर सारा विवेक, सारा धर्म, सारी संस्कृति औरे सारी चेतना की तलाश बाजार में करने निकले थे और जब वह काम नहीं पूरा हो पाया तो फिर अतिराष्ट्रवाद के मूल को सींचते हुए वहीं धर्म और संस्कृति व चेतना तलाश रहे हैं और उसी घाट पर अपने बाजार के उद्धार देख रहे हैं। लेकिन इशारा उनकी ओर भी है। इशारा उनकी ओर नहीं है जो इतने सरकारवादी हैं कि विपक्ष की अहमियत को देखना ही नहीं जानते हैं और नफरत और सांप्रदायिकता के लिए अपने भीतर झांकने के बजाय गैर-कांग्रेसवाद और समाजवाद के ही माथे पर सारा दोष मढ़ते है। लेकिन है उनकी तरफ भी। लेकिन असली इशारा उनकी ओर है जो हमारे मानवता के महान मूल्यों को शास्वत और सनातन नहीं मानते बल्कि उस ढांचे को मानते हैं जिसमें से वे देवता कब के कूच कर गए हैं। उनकी ओर हैं जो किसी महान व्यक्ति के विचारों के बजाय उसकी रणनीति और उसके जीवन की घटनाओं पर ही निगाह रखते हैं। वास्तव में आज आवश्यकता राजनेताओं से अधिक समाज के उस बौद्धिक वर्ग से संवाद करने की है जो किसी समाज की चेतना को गढ़ता है, मूल्यों को स्थापित करता है और संस्कृति और धर्म की सनातना को परिभाषित करता है। उसी के बहाने उस आमजन से भी संवाद करने की आवश्यकता है जिसकी चेतना मतिभ्रम के तूफान में किसी मड़ैया की तरह अपने स्थान से उखड़ कर कहीं दूर जा गिरी है और वह उसे ढूंढ ही नहीं पा रहा है। अब यह कह कर संतुष्ट होने का समय नहीं है कि आखिर जब पूरी दुनिया में उजबक किस्म का राजनीतिक नेतृत्व विकसित होकर लोकतांत्रिक और मानवीय चेतना को निरंतर पीटकर घायल कर रहा है तो हमी क्या कर सकते हैं। अगर आज के समय में गहन अंधेरे के बीच दीप संभाल कर रखना है, मतिभ्रम के तूफान में रिश्ते बनाकर रखना है और पारधी से कस्तूरी वाला हिरण बचाकर रखना है तो आधुनिक भारत, मध्य युगीन भारत और प्राचीन भारत के उन महान मूल्यों की ओर जाना होगा जिन्होंने हमें सदियों से आलोकित किया है। जाहिर सी बात है यह यात्रा घटनाओं को परे हटाकर होनी चाहिए वरना हम तमाम घटनाओं के जंगल में उलझ कर मूल्यों के अमृत फल को भूल जाते हैं। इसी के साथ हमें जाना होगा पश्चिम के उस दार्शनिक चिंतन की ओर जो उपनिवेशवाद का विरोधी रहा है और जिसमें स्वतंत्रता, समता और बंधुता के त्रिगुणी मूल्यों में टकराव के बजाय समन्वय देखने की वृत्ति रही है। वास्तव में हमें वह युरोप चाहिए जो एशिया और अफ्रीका को असभ्य बताकर उन्हें गुलाम नहीं मित्र बनाने की इच्छा रखता है। वास्तव में हमें वह युरोप चाहिए जो नस्ली श्रेष्ठता से मुक्त होकर समता के मूल्यों में यकीन करता है। आजादी के बाद हमारी समस्या यह रही कि हमने आधुनिक भारत की उस परंपरा को ही विस्मृत कर दिया जो राजा राम मोहन राय, केशव चंद्र सेन, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, अरविंद, महात्मा फुले, टैगोर, गांधी, नारायण गुरु और पेरियार से होते हुए आंबेडकर तक हमारी चेतना को झंकृत करती और जगमगाती हुई दिखती है। यही वह दीप श्रृंखला है जिसे संभालकर हम रख नहीं पाए और इसीलिए एक ओर भ्रष्ट भौतिकवाद और दूसरी ओर अनैतिक धर्म और संस्कृति में डुबकी लगाने के बहाने डूबने लगे। हमारी मुश्किल यह रही है कि हमने इन तमाम महापुरुषों द्वारा प्रतिपादित विचारों को ग्रहण करने के बजाय उन्हें रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया। हमारी अस्मितावादी राजनीति ने समग्रता को तो खंडित किया ही उसने उन मूल्यों को भी खंडित किया जो भारतीय संस्कृति की थाती रहे हैं। आखिर अगर गांधी और आंबेडकर रणनीतिकार थे तो उनकी रणनीति तो उनके अपने समय के रण के साथ समाप्त हो गई, उसे आज के नए दौर में स्मरण करने की क्या जरूरत है ? उनकी रणनीति एक दूसरे के विरुद्ध थी, एक दूसरे के साथ भी थी। लेकिन उस पर आज विवाद करने और बहस करने से ज्यादा जरूरी है उनके मूल्यों में समता देखना और उन्हें आगे ले जाने की। हां गांधी सनातनी थे लेकिन उनके लिए सनातनी होने का अर्थ किसी मंदिर में माथा टेकना या किसी बाबा और शंकराचार्य के चरणों में लोटना नहीं था। उनके लिए सनातनी होना उन सनातन मूल्यों को अपने समय में प्रकट करना था जो उनके विवेक की कसौटी पर खरे उतरें। वे मूल्य सत्य और अहिंसा के थे। उनके लिए सनातन ऋग्वेद का नासदीय सूक्त वह नियम था जिसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति का वर्णन है। यहां ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। उसी वैदिक साहित्य में ऋत की परिभाषा दी गई है जो सृष्टि का मूल है। ऋत का नियम यानी इस ब्रह्मांड को चलाने वाला नियम जो कि ईश्वर की धारणा से मुक्त है। यही नियम केवल हिंदू धर्मावलंबियों को नहीं बल्कि पूरी प्रकृति को एक दूसरे से बाधे हुए है। गांधी का सत्य वही था। इसीलिए वे कहते भी थे कि हमने सत्य और अहिंसा का आविष्कार नहीं किया बल्कि वे तो उतने ही पुराने हैं जितने यह पर्वत और पहाड़ी। लेकिन राजनीतिक दलों ने और भारत जैसे कृतघ्न समाज ने गांधी के विचार को समझने के बजाय उन्हें एक पोस्टरव्वाय के तौर पर इस्तेमाल किया। क्योंकि उन्हें डर था कि अगर गांधी के विचार जग गए तो उनकी सत्ता खतरे में पड़ जाएगी। यही स्थिति आंबेडकरवादियों की भी रही है। उन्होंने आंबेडकर से गांधी से लड़ने की रणनीति सीखी लेकिन आंबेडकर के उन विचारों को भुला दिया जहां वे कहते हैं कि समता और बंधुत्व का विचार तो कार्ल मार्क्स से ढाई हजार साल पहले भारत में बुद्ध के समय में जन्मा था और बंधुत्व का विचार ही वह मूल्य है जो स्वतंत्रता और समता को बांधकर रख सकता है। इसी तरह हम न तो धर्म के मर्मज्ञ व्यास और तुलसी की इस बात को सुनने वाले हैं कि ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई’ और न ही संस्कृति के इस मूल मंत्र को समझने वाले हैं कि सारा संसार एक कुटुंब है यानी ‘वसुधैव कुटुंबकम’। हम झूठ, ठगी और अहंकारी सत्ता के घनघोर अंधेरे में घिर गए हैं। जहां शब्दों के अर्थ इतने बदल गए हैं और इतने विकृत हो गए हैं कि सही गलत, प्रकाश और अंधकार कुछ समझ में ही नहीं आता। हम सनातन के नाम पर धर्म और संस्कृति के उच्छिष्ट में आचमन कर रहे हैं और सोच रहे हैं कि अमरत्व हासिल हो रहा है और उसके मूल की ओर जाने का साहस नहीं कर रहे हैं जो हमारी चेतना के विकास को एक ऊंचाई प्रदान करता रहा है और आगे भी कर सकता है। इस देश का बौद्धिक वर्ग सरकारें नहीं पलट सकता, बाजार के लूटपाट को एकदम बदल तो नहीं सकता और न ही धर्म के ठेकेदारों से समाज की बंधुवा मुक्ति कर सकता है। इसके बावजूद इतना तो कर ही सकता है कि जहां भी है वहां वहां दीप संभाल कर रख सकता है, अपना दीपक स्वयं बन सकता है और एक दीप से दूसरा दीप जला सकता है।

मराठी कवि सुरेश भट्ट का प्रेरणा गीत : उजाला रखो, अंधकार ज्यादा हो गया है

 अरुण कुमार त्रिपाठी मराठी कवि सुरेश भट्ट ने एक अद्भुत प्रेरणा गीत लिखा है। उसे अपनी अमृतवाणी देकर आशा भोंसले ने अमर कर दिया है। संयोग से यह गीत हमारे समय की एक पुकार जैसा लगता है। इसलिए पहले उसका मराठी पाठ प्रस्तुत करने का औचित्य बनता है। वैसे तो ध्यान से पढ़ने और सुनने पर…

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‘रंग परिवर्तन’ (गुरुग्राम) में नाटक ‘बिन बाती के दीप’ का सफल मंचन : क्रूर महत्वाकांक्षा के सर्वग्रासी रूप की जीवंत प्रस्तुति

नाट्य समीक्षक की कलम से  गुरुग्राम। गुरुग्राम स्थित नाट्य-संस्था ‘रंग परिवर्तन’ की इस बार की प्रस्तुति थी, नाटककार शंकर शेष का बहुमंचित नाटक ‘बिन बाती के दीप’। प्रस्तुति का निर्देशन वरिष्ठ व जाने-माने रंगकर्मी और पचास वर्ष से रंगकर्म की यात्रा जारी ऱखे हुए महेश वशिष्ठ ने किया। बीसवीं सदी के साठोत्तरी नाटककारों में शंकर…

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‘इरा’ मासिक वेब पत्रिका का प्रेम विशेषांक : इजहार-ए-इश्क

इरा वेब पत्रिका का प्रेम-विशेषांक : इजहार-ए-इश्क नाजिया सुलतान उर्फ बेबी खान की कलम से प्रेम बेटी को कॉलेज छोड़ता बाप हैप्रेम गीले में सोई मां हैप्रेम नीलामी है मौसम कीजो भी जैसा भी जहां है जीवन की कोमलतम अनुभूति प्रेम पर केंद्रित यादगार रचनाओं के साथ ‘इरा’ मासिक वेब पत्रिका का प्रेम विशेषांक फरवरी…

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राजेंद्र राजन की पांच कविताएं

यह कौन सी जगह है यह कौन सी जगह है जहां हवा आतंक से भारी है यह कैसा मंच हैं और जहां से एक हत्यारे के जयकारे की आवाज़ आ रही है यह कैसी सभा है जो धर्म के नाम से बुलायी गयी है लेकिन जहां सभी अधर्म की भाषा बोलते हैं जहां सबकी ऑंखों…

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मैं, रेजा और 25 जून

चित्र : अनुप्रिया  सीमा शर्मा यह उम्र ही ऐसी होती है। सब कुछ अच्छा लगता है। सुंदरता और शोख रंग तो खींचते ही हैं, पर जोहट कर है, वह और अधिक आकर्षित करता है। शायद यह चुंबकीय उम्र होती है। खींचती है औरखिंचती भी चली जाती है। मैं रोज ही उसे देखता था। लेकिन यह…

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नोबेल पुरस्कार विजेता ओरहान पामुक

नोबेल वक्तव्य : मेरे पिता का बक्सा

ओरहन पामुक की जुबानी/ जनमन इंडिया टीम द्वारा चयनित और अनूदित मेरे पिता का बक्सा : ओरहान पामुक स्वर्गवासी होने से दो साल पहले, मेरे पिता ने मुझे अपनी इबारतों, हस्तलेखों और नोटबुकों से भरा एक छोटा बक्सा दिया था। मजाकिया लहजे में उन्होंने मुझे बताया कि वे चाहते थे कि उनके न रहने यानी…

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आलोचना, समय की सजग बौद्धिक प्रहरी है : रोहिणी अग्रवाल

चयन जनमन इंडिया टीम द्वारा अपने वक़्त के साथ बेहद तनावपूर्ण, जटिल और संश्लिष्ट संबंध जीता है रचनाकार। संवेदनशील विश्लेषणात्मक विवेक को तीसरी आंख बनाकर जब वह अपने समय पर दृष्टिपात करता है तो देखता है कि समय लम्हों, सदियों या युगों में बंटे इतिहास का कोई पन्ना भर नहीं है। वह एक ही फ़र्लांग…

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