सुप्रीम कोर्ट : मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त की बहुप्रतीक्षित सुनवाई अब होगी 17 मार्च को
जनमन इंडिया ब्यूरो

दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट में मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और चुनाव आयुक्तों (ईसी) की नियुक्तियों में सरकार को अहम भूमिका देने वाले कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर बहुप्रतीक्षित सुनवाई बुधवार को नहीं हो सकी। न्यायमूर्ति सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली पीठ अन्य मामलों में व्यस्त थी, जबकि केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस आधार पर स्थगन की मांग की कि वह संविधान पीठ के समक्ष दूसरे न्यायालय में उपस्थित हो रहे हैं। याचिकाकर्ताओं द्वारा बार-बार मौखिक उल्लेख करने के बावजूद भी कोई हल नहीं निकल पाया।
प्रशांत भूषण ने मांगा था एक घंटे का समय

याचिकाकर्ता-एनजीओ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की ओर से पेश हुए अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने अदालत से जल्द सुनवाई का आग्रह करते हुए कहा कि यह मामला बहुत अहम है और इसमें ज्यादा समय नहीं लगेगा। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता अदालत के समय का केवल एक घंटा ही इस्तेमाल करेंगे। लेकिन, पीठ 19 मार्च से पहले की तारीख के अनुरोध पर अनिच्छुक दिखी। हालांकि, पीठ ने मंगलवार को याचिकाकर्ताओं को आश्वासन दिया था कि बुधवार को मामले को प्राथमिकता दी जाएगी।
मेहता के स्थगन के अनुरोध पर प्रतिक्रिया देते हुए भूषण ने कहा कि इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि पीठ ने संकेत दिया है कि वह मामले को अब से एक महीने बाद यानी 19 मार्च तक टाल सकती है। इस महत्वपूर्ण मामले को केवल सॉलिसिटर जनरल की अनुपलब्धता के कारण स्थगित नहीं किया जाना चाहिए। भूषण ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में 17 विधि अधिकारियों में से कोई भी केंद्र सरकार की ओर से पेश हो सकता था। अधिवक्ता कालीस्वरम राज ने भी मामले में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि चर्चा मार्च 2023 में अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ में दिए गए पांच न्यायाधीशों की पीठ के फैसले पर केंद्रित होगी, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश को सीईसी और ईसी की नियुक्तियों में शामिल उच्च-शक्ति प्राप्त चयन समिति के सदस्य के रूप में शामिल किया गया था। अधिवक्ता वरुण ठाकुर, जया ठाकुर की ओर से पेश हुए। उनका कहना था का मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और पदावधि) अधिनियम 2023 को फैसले को कमजोर करने के लिए पेश किया गया था।
याचिकाकर्ताओं ने मुख्य रूप से क़ानून की धारा 7(1) की वैधता को चुनौती दी थी। इस प्रावधान के अनुसार राष्ट्रपति प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री की चयन समिति की सिफारिश पर मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करेगा। संक्षेप में, इस क़ानून ने चयन समिति में मुख्य न्यायाधीश की जगह एक केंद्रीय मंत्री को शामिल कर दिया था, जिससे सरकार को भारत के चुनाव आयोग की नियुक्तियों में एक तरह से वरीयता मिल गई। यह मामला एक अहम कानूनी सवाल उठाता है कि क्या संसद संविधान पीठ के फैसले को बिना स्पष्ट कारण बताए दरकिनार कर सकती है। बीती जनवरी में, जब मामला आया था, न्यायमूर्ति कांत ने इस बात पर प्रकाश डाला था कि 2023 अधिनियम की वैधता के बारे में परीक्षण इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत बाध्यकारी निर्णय सुनाने के शीर्ष अदालत के अधिकार को कानून द्वारा दरकिनार किया जा सकता है या कमजोर किया जा सकता है ? न्यायमूर्ति कांत ने टिप्पणी की थी कि यहां असली परीक्षण अदालत की राय और विधायी शक्तियों के प्रयोग के बीच है।