राजेंद्र राजन की पांच कविताएं

यह कौन सी जगह है

यह कौन सी जगह है

जहां हवा आतंक से भारी है

यह कैसा मंच हैं और

जहां से

एक हत्यारे के जयकारे की आवाज़ आ रही है

यह कैसी सभा है

जो धर्म के नाम से बुलायी गयी है

लेकिन जहां सभी अधर्म की भाषा बोलते हैं

जहां सबकी ऑंखों से चिनगारियॉं फूट रही हैं

जहां हत्या के लिए ललकारने की होड़ लगी है

वक्ता एक के बाद एक आते हैं

जनसंहार के लिए उकसाते हैं

और श्रोतागण

ऐसे हर आह्वान पर मुदित हो

तालियॉं बजाते हैं

सभा के अंत में

सब मिलकर

देर तक नारे लगाते हैं

सहमे हुए लोगों के ख़िलाफ़

कितना तक़लीफ़देह है यह सब सुनना

कितना भयावह है

अपने देश को

एक विशाल घृणा में

बदले जाते हुए देखना!

ख़ुद के ख़िलाफ़

मैं बार-बार ठगा गया हूं

रोजाना परेशानहाल

और खौफ़ज़दा रहता हूं

फिर भी मैं कितना ख़ुश दिखता हूं

इस कमर्शियल ब्रेक में

अख़बार के इस पन्ने पर

इस होर्डिंग में

किसानों के कर्ज से लदे होने

और ख़ुदकुशी करने के सिलसिले के बरअक्स

मैं एक किसान का चेहरा हूं

लहलहाती फसलों के बीच

प्रसन्न मुद्रा में

किसानों की ख़ुशहाली बयान करता हुआ

रोज बलात्कार की घटनाओं से परे

मैं एक औरत का चेहरा हूं

दर्प और आश्वस्ति से भरा

महिला सुरक्षा और सम्मान का

भरोसा दिलाता हुआ

काम की तलाश में दर-दर भटकते

करोड़ों अनुभवों के बीच

पुलक और उमंग से भरा

मैं एक नौजवान का चेहरा हूं

नित रोजगार वृद्धि के ऑंकड़े बताता हुआ

पुलिस की वर्दी देख

मैं दूर भागता हूं

किसी भी सरकारी दफ्तर में जाते

मैं डरता हूं

सरकार के बारे में

कहीं भी कुछ कहने से बचता हूं

लेकिन इधर देखिए इधर इस होर्डिंग में

मैं सीधे सरकार के बगल में खड़ा हूं

शान से मुस्कराता हुआ

इतने ख़ुश तो साहब लोग भी नहीं दिखते

जितना ख़ुश मैं दिखता हूं

हर सरकारी विज्ञापन में

अपनी तक़लीफ़ों झुठलाता हुआ

ख़ुद के ख़िलाफ़ गवाही देता हुआ।

यह पुल

आठ साल पहले बना था यह पुल

तब सरहद के इस पार

और उस पार के गॉंव ही नहीं

दो देश जुड़ गये थे

जिस दिन पुल का उदघाटन हुआ

दोनों तरफ़ त्योहार का आलम था

दोनों तरफ़ के फ़ौजी अफसरों ने

एक-दूसरे को गले लगाया

दोनों तरफ़ के ग्रामीणों ने

एक-दूसरे को मिठाइयॉं खिलायीं नाचे गाये

दोनों तरफ के राष्ट्राध्यक्षों ने

एक-दूसरे से हाथ मिलाया हाथ थामे फोटो खिंचवायी

मैत्री की महिमा बतायी

और शांति का भरोसा दिलाया

  लेकिन एक बार फिर

पुल के इस तरफ़ और उस तरफ़ के गॉंव

गॉंव न रहकर

राष्ट्र के मोर्चे बन गये हैं

पुल पर आवाजाही की मनाही हो गयी है

वातावरण एक खौफ़ का मंज़र है

यह फसल कटाई का समय है

लेकिन ग्रामीण अपने घरबार छोड़

जाने कहां चले गये हैं

सुनने में आता है

लड़ाई कभी भी छिड़ सकती है

और अब ख़बर है कि कल या परसों

पुल तोड़ दिया जाएगा

वरना पुल से होकर उधर के सैनिक

इधर धावा बोल सकते हैं

अलबत्ता हवा और बादल और परिंदे

तब भी आते जाते रहेंगे

इस पार से उस पार

यह नदी तब भी बहती रहेगी

दोनों तरफ़।

वह जो वहां से चला गया

सब कुछ वैसा ही चल रहा था

जैसा आयोजक चाहते थे

मुख्य अतिथि समय से आ गये थे

और कविगण थोड़ा पहले ही

मंच इन सब से सुशोभित हो गया था

और सभाकक्ष

श्रोताओं से लगभग भर गया था

लेकिन संचालक ने जैसे ही

एक तस्वीर की तरफ़ इशारा कर

हुकूमत की शान में क़सीदे पढ़ना शुरू किया

उसके कान खड़े हो गये

वह मंच से उठा और चला गया

यह कहते हुए

कि आयोजन का असल मक़सद

हमसे क्यों छिपाया गया

हालांकि उसे रुकने के लिए

मनाया गया

लेकिन मन में एक कौंध की तरह उठे

अपने निर्णय पर वह अडिग रहा

और बेझिझक चला गया

एक सवाल छोड़कर

जिसका जवाब किसी ने नहीं दिया

उसका इस तरह वहां से चले जाना

बहुत कुछ कह गया

कि बख़्शीश पाने के लिए

आज भी जारी है

सिंहासन के गुन गाने की रवायत

लेकिन आज भी अस्वीकार में

उठा है किसी का हाथ

आज भी कोई

चला जा रहा है अपनी राह

इनाम और सज़ा से बेपरवाह

आज भी गा रहा है कोई फ़कीर

अपनी मस्ती में डूबा

ईश्वर अल्ला तेरो नाम का राग

आज भी कहीं ज़िंदा है ज़मीर

आज भी किसी के शब्दों में बची है आग

आज भी मौजूद हैं

कविता में कबीर

वहां से उसके चले जाने के बाद भी

सभा चलती रही

लेकिन लगातार हिलती रही

आयोजकों ने चरण वंदना की खातिर

टॉंगी थी जो तस्वीर।

(संदर्भ : कविमित्र शिवकुमार पराग एक गोष्ठी में भागीदारी अनुचित मानकर निकल आए थे।)

नामशून्य

जाने किस पुकार का पीछा करते

यहां आ पहुंचा हूं

यहां इस जंगल में

कुछ देर तक सुन पड़ती किसी पक्षी की कूक

अब नहीं आ रही

खो गयी हैं सारी पगडंडियॉं

सारी दिशाऍं

थक-हारकर बैठा हूं इस टेकरी पर

ढलान के एक ओर खिले हैं गुच्छा गुच्छा फूल

इस फूल का नाम मैं नहीं जानता

सामने बहती झील के उस पार

खामोश खड़े

अनगिनत पेड़ों की प्रजातियों का

मुझे कुछ पता नहीं

क्या इस झील का कोई नाम होगा?

कौन जाने!

पत्तों से छनकर आता सूर्योदय

कुछ देर लहराता रहा झील पर

धीरे-धीरे अब एकदम शांत हो गयी है झील

और सूर्य उतर पड़ा है झील के तल में

मानो वह देख रहा हो अपनी छवि

जल के दर्पण में

इस अनुभव को

अथवा इस क्षण को

क्या नाम दूं

मौन के अनाम जंगल

लगता है मैं भी हो गया हूं

नामशून्य

लौट आया हूं

नामों के इस संसार में

लेकिन चाहता हूं

जिन चीज़ों को नाम से जानता हूं

उन्हें जान सकूं एक बार

उनके नाम के बग़ैर।

 

(परिचय : जन्म 20 जुलाई 1960 को वाराणसी में। शिक्षा दीक्षा वाराणसी से। अनेक साल समाजवादी विचारों की पत्रिका सामयिक वार्ता के कार्यकारी संपादक रहे। मई 2003 से हिन्दी अखबार जनसत्ता के संपादकीय पेज की जिम्मेदारी सॅंभाली। जुलाई 2018 में जनसत्ता के वरिष्ठ संपादक के पद से सेवानिवृत्त। इस समय सेतु प्रकाशन में मुख्य संपादक। एक कविता संग्रह ‘बामियान में बुद्ध’ नाम से प्रकाशित। इसके अलावा आचार्य नरेन्द्रदेव संचयन और किसान आंदोलन पर लिखी पचास कवियों की कविताओं का संकलन-संपादन। नारायण देसाई की किताब ‘माई गांधी’ का हिन्दी अनुवाद सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित।) ईमेल rajendrarajan234@gmail.co M- 901393296

5 thoughts on “राजेंद्र राजन की पांच कविताएं

  1. I’m still learning from you, as I’m improving myself. I definitely liked reading everything that is written on your site.Keep the stories coming. I enjoyed it!

  2. Отличный эффект даёт продвижение сайта в интернете Санкт-Петербург https://stokrat.org/, если правильно определить целевую аудиторию. В Санкт-Петербурге без онлайн-видимости сложно конкурировать.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Skip to content