‘रंग परिवर्तन’ (गुरुग्राम) में नाटक ‘बिन बाती के दीप’ का सफल मंचन : क्रूर महत्वाकांक्षा के सर्वग्रासी रूप की जीवंत प्रस्तुति

नाट्य समीक्षक की कलम से
गुरुग्राम। गुरुग्राम स्थित नाट्य-संस्था ‘रंग परिवर्तन’ की इस बार की प्रस्तुति थी, नाटककार शंकर शेष का बहुमंचित नाटक ‘बिन बाती के दीप’। प्रस्तुति का निर्देशन वरिष्ठ व जाने-माने रंगकर्मी और पचास वर्ष से रंगकर्म की यात्रा जारी ऱखे हुए महेश वशिष्ठ ने किया।
बीसवीं सदी के साठोत्तरी नाटककारों में शंकर शेष का विशिष्ट स्थान है। उनका यह नाटक मौजूदा दौर में भी न केवल प्रासंगिक है, बल्कि यह कहना मुनासिब होगा कि गलाकाट प्रतिस्पर्धा और दूसरों को गिरा कर आगे बढ़ने की अंधी दौड़ के इस दौर में यह नाटक कहीं ज्यादा मौजू हो गया है। यही वजह है कि रंग परिवर्तन की यह नाट्य प्रस्तुति दर्शकों को सोचने पर विवश करती है कि स्वार्थ, लालसा और सब कुछ हड़प लेने की मनुष्य की आसुरी मनोवृत्ति आखिर कहां जाकर थमेगी। नाटक के प्रमुख चरित्र विशाखा के प्रति दर्शकों के मन में उमड़ती सहानुभूति और शिवराज के प्रति उपजते वितृष्णा के भाव कहीं न कहीं नाट्य प्रस्तुति की प्रभाव की ओर इंगित करते हैं।
नाटक की कथावस्तु संक्षेप में यों है। शिवराज और विशाखा पति पत्नी हैं। दोनों का प्रेम विवाह हुआ है। विशाखा बहुत अच्छी लेखिका है। शिवराज भी कविताएं लिखता है लेकिन उसकी लेखनी में वो बात नहीं है जो विशाखा के लेखन में है। विशाखा आंखों की रोशनी गवां बैठती है। अब विशाखा बोल बोल कर शिवराज को उपन्यास लिखवाती है। शिवराज उसके उपन्यासों को अपने नाम से छपवा कर पैसा भी बटोरता है और शोहरत भी। विशाखा को वह इस छलावे में रखता है कि उसके उपन्यास लोगों में बहुत लोकप्रिय हैं और लोग उसे बहुत चाहते हैं। वह विशाखा को उसके उपन्यासों पर होने वाली वार्ताएं सुनवाता है जबकि यह वार्ताएं नकली हैं और खुद उसी ने गढ़ी हैं। इसी परिदृश्य में शिवराज की सहायिका मंजू भी है। जो विशाखा द्वारा शिवराज को लिखवाए गए उपन्यासों को टाइप करती है। दोनों में विवाहेतर संबंध हैं। शिवराज ने उससे विवाह करने का वादा किया है। लेकिन उसका कहना है कि ‘में तो अजीब स्थिति में हूं। मेरे लिए उसका जिंदा रहना भी जरूरी है और ना रहना भी। मंजू उसका जिंदा रहना इसलिए जरूरी है कि यदि वह नहीं रहेगी तो लेखक के रूप में मेरा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। उसका न रहना इसलिए जरूरी है कि जब तक वह है तुम मेरे जीवन में पूरी तरह नहीं आ सकतीं। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता।‘
जाहिर है, नाटक और उसके चरित्र एकरेखीय और सरल नहीं है। ये चरित्र जटिल हैं क्योंकि जहां एक तरफ ये लालच, महत्वाकांक्षा, स्वार्थ और धूर्तता में लिपटे हैं, वहीं इनका प्रतिमन इन्हें इसके लिए धिक्कारता भी है और यही अंतरद्वन्द्व, पसोपेश इन्हें नाट्य अभिनेता के लिए चुनौतीपूर्ण बनाता है। इस दृष्टि से शिवराज और मंजू के चरित्र सबसे चुनौतीपूर्ण हैं और मंच पर इसने और उसने अपने अपने चरित्र के साथ न्याय करने की पूरी कोशिश की है। दोनों ही चरित्र निरंतर गहरे अंतर्द्वन्द्व से जूझते रहते हैं।
शिवराज और मंजू की भूमिका में क्रमशः प्रद्युम्न और यशिका ने अपनी लालसाओं के पूरी होने की वहशियाना खुशी को प्रभावपूर्ण रूप से व्यक्त किया है, वहीं अंतर्मन के द्वन्द्व को भी असरदार तरीके से जाहिर किया है।
प्रद्युम्न के लिए यह भी कहना होगा कि शिवराज का चरित्र अपने क्रूर लालच, वहशी धूर्तताओं और पतन के गर्त में गिर चुके व्यक्ति के रूप में जितना अमानुष है, वहीं अपनी स्थिति के प्रति स्वीकार भाव, विशाखा को लेकर उसके मन में कहीं छिपा मोह और गहरा अंतर्द्वन्द्व इसे बेहद जटिल और चुनौतीपूर्ण बनाता है। लेकिन प्रद्युम्न अपने अभिनय को उस स्तर तक नहीं ले जा पाए, जहां वे इस चरित्र को प्रेक्षक के मन में यादगार बना सकते थे।
नाटक के इन तल्ख पलों को अपनी हास्यपूर्ण अनुवाद प्रतिभा से हल्का फुल्का करता है, विदूषक सरीखा चरित्र नटवरलाल। हालांकि यह चरित्र ऊपर से जितना एकायामी लगता है उतना है नहीं। इस भूमिका में मयंक खूब जमे हैं।
कैप्टन आनंद की भूमिका को अंश ने बड़ी सहजता से निभाया है। उनके अभिनय में सायासपन नहीं है और उनकी यह खूबी समूची नाट्य प्रस्तुति को प्रभावपूर्ण बनाने में सहायक है।
विशाखा के चरित्र में नेहा खन्ना कमोबेश पूरी प्रस्तुति में असरदार रहीं, हालांकि नेत्रहीन व्यक्ति के मैनेरिज्म पर यदि वे कुछ और काम करतीं तो उनके और दर्शकों के लिए यह अविस्मरणीय प्रस्तुति हो सकती थी।
संगीत संयोजन कल्पना ने किया, जो नाट्य कथावस्तु के अनुरूप और मधुर था। मंच सज्जा संतुलित, समानुपातिक और प्रभावशाली थी। प्रकाश संयोजन तरुण का था, हालांकि इसे और अधिक चुस्त किया जा सकता था। कुल मिलाकर प्रस्तुति के बाद सुधी दर्शक अगर विशाखा के प्रति तीव्र सहानुभूति और शिवराज के प्रति वितृष्णा के भाव लेकर लौटे हैं तो कहा जा सकता है कि मंचन —-सशक्त और प्रभावपूर्ण रहा।

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