महिला रचनाकारों पर केंद्रित “इरा” का मार्च अंक : स्त्री संवेदनाओं की ह्रदयस्पर्शी अभिव्यक्ति

कलमकार की कलम से
“इरा” पत्रिका का मार्च अंक महिला रचनाकारों के सृजन पर केंद्रित है। पठनीय और संग्रहणीय इस अंक के आरंभ में अपने विचारशील और संतुलित संपादकीय (सशक्त महिला – कमजोर समाज) में अलका मिश्रा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के ऐतिहासिक विकासकम पर चर्चा करते हुए महिला सशक्तिकरण से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर बहुआयामी विमर्श सामने रखती हैं।
महिला अधिकारों पर बात करते हुए वह पुरुषों की प्रताड़ना और दमन का मुद्दा भी उठाती हैं और उनकी यह महत्वपूर्ण टिप्पणी संपादकीय के सार-तत्व को व्यक्त करती है कि “हम यह कभी नहीं चाहेंगे कि सशक्त महिला एक कमजोर समाज का निर्माण करे।”
अंक में नीरजा हेमेंद्र की कहानी ‘यह शाम का समय है’ मध्यवर्गीय जीवन की विवशताओं के बीच अदम्य हौसले को बखूबी उकेरती है। कहानी बेटी के असफल वैवाहिक जीवन से दुखी माता-पिता की व्यथा और अंततः बेटी के जीवन-संकटों से लड़ने के लिए तैयार होने की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है।
स्नेह गोस्वानी की मार्मिक कहानी ‘ऐसा यहां होता है’ पिता और बेटी के संबंधों को गहरे में खंगालती है। डा. सुषमा त्रिपाठी की कहानी ‘प्रसाद’ भी दिल को छूती है।
दामोदर माओजो की कोंकणी कहानी ‘किसकी लाश’ कोरोना काल के भयावह दौर में मानवीय संवेदनाओं की अप्रतिम अभिव्यक्ति है। कहानी जितनी बेजोड़ है, उसका हिंदी में अनुवाद भी काबिलेतारीफ है। प्रियंका गुप्ता ने बेहतरीन अनुवाद में कहानी की संवेदनशीलता को बखूबी बनाए रखा है।
डॉ. नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ की लघुकथाएं प्रभावपूर्ण हैं, खासकर ‘अटूट विश्वास’ जो सांप्रदायिक तनाव के माहौल में भी जीवित बची मानवीय संवेदना को असरदार तरीके से व्यक्त करती है।
पूजा अग्निहोत्री की लघु कथा ‘मौन’ मार्मिक विषय की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है, वहीं उनकी लघु कथा ‘वंदे मातरम’ अपने कलेवर में भले ही लघु हो लेकिन बेहद मार्मिक अभिव्यंजना के साथ यह निश्चित ही एक बड़ी कहानी का प्रभाव निर्मित करती है।
अंक में सुरंगमा यादव के हाइकु हृदयस्पर्शी हैं। कोमल भावनाओं की आत्मीय अभिव्यक्ति मन को झंकृत कर देती है।
पी मकरंद/ भ्रमर रच रहा/ प्रणय छंद
व्यंजन सी मैं/ तुम हो मेरे स्वर/ पूर्ण पाकर
लिव इन में/ पलक झपकते/ लव आउट
प्रेम नगीना/ मन मुद्रिका बीच/ सजा कर रखना
प्रेम के किस्से/ दर्द की जागीर है/ हमारे हिस्से
इंदिरा किसलय के हाइकु भी प्रभावपूर्ण हैं।
रात अप्सरा/ नभ में तारा फूल/ गूंथे गजरा
ध्वज तिरंगा/ प्रतीक महादेश/ बजा है डंका
क्षणिका ‘घरेलू महिला’ बहुत कम पंक्तियों मे स्त्री जीवन की वास्तविकता को व्यक्त करने में सक्षम है।
घरेलू महिला/कुछ उल्टे कुछ सीधे फंदों के बीच फंसी/ एक सलाई/ जिसके बिना स्वेटर की उत्पत्ति संभव नहीं/ पर फिर भी जिसका अधिकार नहीं/ स्वेटर के रंग आकार और डिजाइन पर
गजलकार डा. भावना से जियाउर रहमान जाफरी की बातचीत और ़डा. आशा पांडेय ओझा आशा से केपी अनमोल का संवाद रोचक और जानकारीपूर्ण है।
‘धरोहर साहित्य’ के अंतर्गत लेख ‘कानपुर का नवजागरण भाग 6’ (पंडित लक्ष्मीकांत त्रिपाठी) विचारशील और जानकारीपूर्ण है।
प्रगति गुप्ता के उपन्यास ‘पूर्णविराम से पहले’ की तेरहवीं कड़ी भी अंक में है। ‘विमर्श’ के अंतर्गत अनामिका सिंह का लेख ‘समकालीन हिंदी गजल ः स्त्री विमर्श’ सारगर्भित और जानकारीपूर्ण है। डा. ज्योत्सना मिश्रा का आलेख ‘होली’ बेहद रोचक है।
कंचन पाठक के घनाक्षरी छन्द मंत्रमुग्ध करते हैं, वहीं गीता गुप्ता ‘मन’ के सरोज सवैया छंद, डा. प्रीति अग्रवाल के दोहे, प्रियंका दुबे प्रबोधिनी के छंद, डा. नीता सुशील अग्रवाल के छंद भी पठनीय हैं।