महाकुंभ 2025 : कौन आया और कौन नहीं, यह कैसी बहस

 एसपी तिवारी

प्रयागराज। महाकुम्भ का मेला खत्म हुआ तो, बहस इस बात पर चल पड़ी की कौन महाकुंभ नहाने आया और कौन नहीं नहाया।कुम्भ प्रयागराज की विरासत है।यह सदियों से चली आ रही परंपरा है।यह किसी राजनीतिक दल की विरासत नहीं है।केंद्र या राज्य में चाहे जिस राजनीतिक दल की सरकार रही हो,प्रयागराज, नासिक,हरिद्वार व उज्जैन का कुम्भ,अर्धकुंभ हमेशा लगता रहा है।प्रयागराज वह जगह है जहाँ प्रतिवर्ष माघ माह में 1माह का माघ मेला लगता है।

यह माघ मेला नाम से ही जाना जाता है।शास्त्रीय शब्द भी यही है।बस कुछ वर्षों में ग्रह,नक्षत्र के योग के अनुसार इसे अर्धकुंभ या कुम्भ नाम दे दिया जाता है।माघ मास का कुम्भ शुद्ध रूप से  आध्यात्मिक मेला हैजहाँ यज्ञ,हवन,कल्पवास,भजन,पूजन,कथा ,प्रवचन ,संत सम्मेलन आदि धार्मिक कार्यों का ही संपादन होना चाहिए।इस बात पर कभी कोई बहस नहीं छिड़ी की कौन यहाँ आया या नहीं आया।हममें से ऐसे बहुत से लोग हैं जो सभी चारों स्थानों पर लगने वाले कुम्भ में नहीं गए।हर सरकार या व्यक्ति की अपनी आस्था या व्यवस्था होती है।कभी कभी शारीरिक या आर्थिक या कोई अन्य परिस्थितियां होती है जिसके चलते आदमी चाहकर भी कहीं नहीं जा पाता।प्रयागराज के इस महाकुंभ में भी बहुत से ऐसे लोग आए जो शायद जीवन में इसके पहले कभी कुम्भ नहीं आये।इस बार कुम्भ की रेती पर ऐसे बहुत से काम हुए जो कभी नहीं हुए।

सब की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं।1954 के कुम्भ व 2025 के कुम्भ की परिस्थितियों में जमीन आसमान का फर्क है।आज आवागमन के तमाम साधन हैं जो पहले नहीं थे।लोग पैदल यात्राएं करते थे।धर्म का व्यवसायीकरण नहीं हुआ था।मनोरंजन की कोई गुंजाइश नहीं थी।शुद्ध रूप से तपस्चर्या का बोलबाला था।आज की तरह बाबाओं के आलीशान महल नुमा शिविर नहीं बनते थे।मैंने देखा है कि देवरहवा बाबा का मचान शास्त्री पुल के उत्तर मेले के आखिरी छोर पर लगता था और उन्हें देखने के लिये बड़ी लंबी लाइन लगी रहती थी। न कोई भाषण न प्रवचन बस ऊंचे बने मचान की कुटिया से निकलकर दर्शन देते थे।किसी को हांथ से तो किसी को पैर से छू दिया तो लोग धन्य हो जाते थे।

प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी तक उनसे मिलने जाती थी।आज की तरह नहीं कि एक उद्योग पति आ गया तो संतों की टोली उसे स्नान करने पहुंच गई।आज कुम्भ का परिवेश पूरी तरह बदल चुका है।सरकार इसे व्यवसाय के रूप में देख रही है।लोगों की गंगा के प्रति आस्था को अपनी उपलब्धि मान रही है।इसलिए यह बात उठ रही है कि अमुक ने स्नान किया और अमुक ने नहीं।यही नहीं लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ने के लिए गंगाजल की होम डिलीवरी की भी व्यवस्था कर दी गयी है।हर जिलों को गंगाजल भेजा जा रहा है।जाहिर है सरकार उसे राजनीतिक रूप से फायदे के रूप में देख रही है।

हमारे ऋषियों, मुनियों ने प्रकृति के संरक्षण हेतु,पेड़,पौधों, जल,हवा,अग्नि ,नदियों, पहाड़ों को ईश्वरीय रूप प्रदान किया था।हम ऑक्सीजन  से जिंदा हैं इसलिए पर्याप्त ऑक्सीजन देने वाले बृक्षों जैसे पीपल,बरगद,नीम, तुलसी को पूजनीय बना दिया।जल ही जीवन है इसलिए जल के स्रोत हिमालय व उससे निकलने वाली नदियों भागीरथी, गंगा,यमुना,सरस्वती आदि को अमृत देने वाली पवित्र नदी बना दिया।जितनी पुरानी सभ्यताएं हैं वे सब नदियों के किनारे ही विकसित हुई।सिंधु घाटी की सभ्यता सबसे पुरानी सभ्यता है जो सिंधु नदी के किनारे विकसित हुई।

सिंधु नदी आज भी विश्व की सबसे बड़ी नदी है।जो कई देशों से होकर बहती है ।हिमालय की बर्फ पिघलकर नदियों को वर्षभर पानी उपलब्ध कराती रहती है।तभी कहते हैं कि गंगा शिवजी की जटा से निकलती हैं।शिव जी का निवास कैलाश पर्वत है जो हिमालय में है।इसलिए गंगा या अन्य नदियों को साफ और पवित्र रखने की जरूरत है।यह स्थान तो शौच आदि नित्यकर्मों के लिए होना ही नहीं चाहिए।पर सरकार की पर्यटन को बढ़ावा देने वाली नीति संगम को कितना प्रदूषित करेगी अभी देखना बाकी है।बहस इस बात पर होनी चाहिए कि किसने कितनी सफाई की ।कहते तो यह भी हैं कि गंगा स्नान के पूर्व साफ सुथरा होकर घर से स्नान करके गंगा स्नान करना चाहिए।गंगा या उसकी रेती में मलमूत्र का त्याग पूर्णतया बर्जित है।गंगा में न तो कपड़े आदि धोएं और न ही कोई अन्य गंदगी।तन के मैल को मन में उतारकर किसी पर उसे कीचड़ की तरह उछालना गंगा स्नान का उद्देश्य नहीं है। ( यह लेखक के अपने विचार हैं।)

One thought on “महाकुंभ 2025 : कौन आया और कौन नहीं, यह कैसी बहस

  1. I like this weblog very much, Its a real nice post to read and get information. “There is no exercise better for the heart than reaching down and lifting people up.” by John Andrew Holmes.

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