मध्यवर्गीय अधूरेपन की पूरी गाथा : ‘आधे अधूरे’ की सशक्त प्रस्तुति

नाट्य समीक्षक की कलम से
गुरुग्राम। गुरुग्राम की रंग संस्था ‘रंग परिवर्तन’ में रविवार 27 अप्रैल की शाम अप्रतिम साहित्यकार मोहन राकेश के बहुमंचित नाटक ‘आधे अधूरे’ का सुविख्यात नाट्य निर्देशक महेश वशिष्ठ के निर्देशन में प्रभावशाली मंचन किया गया।
‘ओमशिवपुरी’ के निर्देशन में दिशांतर द्वारा दिल्ली में फरवरी 1969 में ‘आधे अधूरे’ के प्रथम मंचन के बाद से पेशेवर व गैर पेशेवर रंगकर्मियों द्वारा इसका अनगिनत बार मंचन किया गया है। इस लिहाज से वरिष्ठ रंगकर्मी महेश वशिष्ठ और उनकी रंग-टोली के लिए न केवल नाटक के प्रभावपूर्ण मंचन की चुनौती थी बल्कि विगत प्रस्तुतियों से कुछ इतर करने का भी दबाव निश्चित ही होगा। कहना न होगा कि रंग परिवर्तन की यह सशक्त प्रस्तुति प्रेक्षकों को मध्यवर्गीय विसंगतियों, कुंठाओं और विडंबनाओं से रूबरू कराने में सफल रही।
हिंदी नाट्य परिदृश्य में ‘आधे अधूरे’ को कई मायनों में मील का पत्थर कहा जाता है। मध्यवर्गीय पारिवारिक जीवन की विसंगतियों को खंगालता यह नाटक पूर्णता की तलाश को प्रतिबिंबित करता है। नाटक कई स्तरों पर मध्यवर्गीय जीवन की परतों को सामने लाता है। एक स्तर पर यह मध्यवर्ग की अपूर्ण आकांक्षाओं को सामने रखता है तो एक दूसरे स्तर पर यह मध्यवर्गीय भारतीय स्त्री की कारुणिक कथा भी है, एक और स्तर पर यह स्त्री–पुरुष के बीच के लगाव और तनाव का दस्तावेज़ है, तो पारिवारिक विघटन का अनन्य दस्तावेज भी है।
अपनी यथार्थवादी अंतर्वस्तु, हरकत भरी सशक्त नाट्यभाषा, असीम रंगमंचीय संभावनाओं तथा नवीन नाट्य प्रयोगों के कारण किसी भी रंग टोली के सामने यह अनेक चुनौतियां पेश करता है।
नाटक शहरी परिवेश के ऐसे मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है, जिसका हर सदस्य अपूर्णता से त्रस्त है। परिवार में पति-पत्नी, एक बेटा और दो बेटियां हैं। महेन्द्रनाथ बहुत समय से व्यापार में असफल होकर घर पर बेकार बैठा है। पत्नी सावित्री नौकरी करके घर चलाती है। महेंद्रनाथ सावित्री से बहुत प्रेम करता है, किन्तु बेरोजगार होने के कारण और उसकी कमाई पर पलता हुआ बेहद दुखी है। उसकी स्थिति अपने ही परिवार में ‘एक ठप्पे, एक रबर स्टांप’ की तरह है। सावित्री अपनी बहुआयामी अपेक्षाओं के कारण महेन्द्रनाथ से कहीं न कहीं वितृष्णा करती है। पुराने मित्र जगमोहन में भी वह अपनी भावनाओं की तृप्ति का जरिया तलाशती है लेकिन उसकी नियति अपूर्णता को झेलने में ही है। महेंद्रनाथ और सावित्री की बड़ी बेटी बिन्नी मनोज के साथ भाग जाती है। बेटे अशोक को भी घर के किसी सदस्य से लगाव नहीं है। वह भी पिता की तरह ही बेकार है। उसका नौकरी में मन नहीं लगता। वह भी बदमिजाज और बदजुबान है। उसकी दिलचस्पी केवल अभिनेत्रियों की तस्वीरों में है और समय अश्लील पुस्तकों के सहारे बीतता है। छोटी बेटी भी इस वातावरण में बिगड़कर जिद्दी, मुंहफट और चिड़चिड़ी हो गई है और उम्र से पहले यौन संबंधों में रूचि लेने लगी है।
नाट्य संस्था ‘रंग परिवर्तन’ की प्रस्तुति मध्यवर्गीय जीवन में पसरे खालीपन के बोध, अधूरी महत्वाकांक्षाओं की टीस, मानवीय संबंधों की रिक्तता और अलगावबोध को सशक्त तरीके से रेखांकित करती है।
महेंद्रनाथ की भूमिका में अमित अपने हावभाव और सशक्त आंगिक अभिनय से असफल व दब्बू होकर रह गए व्यक्ति की कुंठाओं, निराशाओं को बखूबी सामने लाते हैं। वरिष्ठ समीक्षकों-आलोचकों ने इस नाटक की भाषा को अन्यतम और इसकी महत्त्वपूर्ण विशेषता बताया है। इसकी भाषा में वह सामर्थ्य है जो मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी, विसंगति और तनाव को पकड़ सके। नाटक का यह भाषा सौंदर्य ही अभिनेता के लिए गहरी चुनौती पेश करता है। इस लिहाज से देखें तो अमित रोजमर्रा वाले सामान्य संवादों में नाट्य भाषा की उस हरकत को कहीं-कहीं पकड़ नहीं पाते और उनके संवाद सपाट रह जाते हैं लेकिन क्रोध और आवेश में बोले गए संवादों में वे महेंद्रनाथ के भीतर लंबे समय से गुबार की तरह जमा होती जा रही कुंठा को बखूबी सामने लाते हैं।
सावित्री की भूमिका में शिवांगी पूरी तरह रम गई नजर आती हैं। अथक संघर्ष करती, घर परिवार को संभालती, बच्चों की चिंता में डूबी और एक दिन इन सबसे आजिज आकर सब कुछ छोड़छाड़ कर निकल जाने के लिए मानसिक तौर पर खुद को तैयार कर लेने के गहरे पसोपेश को व्यक्त करना किसी भी अभिनेत्री के लिए कठिन चुनौती है लेकिन शिवांगी इस चुनौती पर खरी उतरती हैं, सिवाए अंतिम दृश्य के, जहां उनके और जुनेजा के बीच तीखी भावाभिव्यक्ति वाले संवाद हैं। यहां शिवांगी कुछ जगहों पर अपने सशक्त अभिनय का प्रवाह बनाए नहीं रख पाईं। लेकिन इन छोटी-मोटी रंग—चूक के बावजूद उनकी यह भूमिका अविस्मरणीय रहेगी। खासकर उनके अभिनय की वह खूबी जिसमें वे दूसरे पात्र के संवाद के दौरान अल्प अंतराल का उपयोग अभिनय को और सशक्त बनाने में करती हैं।
किन्नी की भूमिका में यशिका वशिष्ठ, सिंघानिया (मयंक शेखर), जुनेजा (सुधीर सोलंकी) और अशोक की भूमिका में सक्षम का अभिनय बहुत सशक्त और प्रभावपूर्ण रहा। जगमोहन के रूप में यश कौशिक ने अपनी भूमिका से न्याय किया लेकिन संवाद अदायगी में कुछ और कसावट और चुस्ती लाते तो और बेहतर कर सकते थे।
बिन्नी की भूमिका में एकता ने पात्र की जटिलता और महीन भावनाओं को पकड़ने की अच्छी कोशिश की लेकिन उनकी यह कोशिश उस परिणति तक नहीं पहुंच पाती, जहां यह भूमिका यादगार हो सकती थी। चूंकि महेंद्रनाथ और सावित्री के बाद यदि किसी पात्र के जरिये नाट्यवस्तु की जटिलता और संवेदनशीलता सबसे अधिक प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त होती है, तो वह बिन्नी है।
मंच सज्जा, प्रकाश व्यवस्था, संगीत और वेशभूषा, नाट्य कथावस्तु के अनुकूल और प्रभावपूर्ण थी।
महेश वशिष्ठ के कसावट भरे निर्देशन में उनके सुदीर्घ रंगकर्म के अनुभव की छाप नजर आती है और प्रस्तुति की प्रवाहमयता कहीं भी विच्छिन्न नहीं होती। उन्हें साधुवाद।
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