प्रश्नचिह्न : साहित्यिक परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप

कलमकार की रिपोर्ट

 

संवेदनाओं को झकझोरती स्तरीय रचनाओं की सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति के साथ ‘प्रश्नचिन्ह’ पत्रिका का फरवरी 2025 का अंक मौजूदा साहित्यिक परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप करता है।  पत्रिका में शंकरानंद. डॉ. निर्मल, वीरेंद्र नारायण झा, ट्विंकल तोमर सिंह और वेद प्रकाश तिवारी की ह्रदयस्पर्शी कविताएं हैं।शंकरानंद अपनी मार्मिक कविता ‘जोशीमठ’ में पहाड़ दरकने से तबाह हुए लोगों का दर्द उकेरते हुए लिखते हैं -पत्थर में पड़ने वाली दरार कलेजे में कब पड़ जाती है यह वही जानता है जिसका घर माचिस की तीली की तरह बिखर रहा है 

वीरेंद्र नारायण झा की कविता ‘विवशता’ भी प्रभावित करती है, इसकी कुछ पंक्तियां हैं – क्या करें पेड़ आबादी का भार ढोते-ढोते बिन तने और शाखा के खड़े हैं आज भी मेरे गांव में कंकाल बने 
ट्विंकल तोमर सिंह की कविता ‘दोहरे कर्तव्यों की मार’ घर-बाहर के अनगिनत कामों से अनथक जूझती स्त्री की व्यथा को व्यक्त करती है। वे लिखती हैं सात बजे हैं रसोई में खड़ी है आठ बजे हैं साड़ी में लाग रही है पिन अन्नपूर्णा की भूमिका से अन्न कमाने वाली भूमिका की यात्रा मात्र आधे-एक घंटे में पूरी करती है स्वाभिमान का कद बढ़ाने को थोड़ी ऊंची एड़ी की चप्पल पहनती है फिर चल देती है ठक, ठक, ठक! कहानीकार राजा सिंह की कहानी ‘पहचान’ तलाकशुदा युवती के मन की गहरी उथल-पुथल और तीव्र मानसिक द्वंद्व की संवेदनशील अभिव्यक्ति है। 

हरिंदर राणावत की कहानी ‘एक था नूहू’ सांप्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि में आम जनजीवन को उकेरते हुए प्रभावपूर्ण तरीके से यह सच सामने रखती है कि दंगों के पीछे अपनी राजनीति चमकाने वाले कुछ चंद नेताओं का ही स्वार्थ होता है जबकि रोजमर्रा के खटराग में खटते आम लोगों के लिए तो बेशमार दिक्कतों से जूझना ही अंतिम सच है। कहानी सामाजिक संरचनाओं की जटिल बनावट में अंतरनिहित वास्तविकता को सहजता और संवेदनशीलता से सामने लाती है।
विचारोत्तेजक संपादकीय में आलोक रंजन अमेरिकी व्यवसायी स्टीव जॉब्स के एक भाषण का हवाला देते हुए उनके एक कथन की दार्शनिक व्याख्या करते हुए कहते हैं – भूखे रहिए और मूर्ख रहिए। भूखे यानी कि आपके अंदर कुछ करने की भूख होनी चाहिए और मूर्ख रहिए क्योंकि आप मूर्ख रहकर ही सीख सकते हैं। रंजन यह अहम सवाल भी पूछते हैं कि आज के समय में कौन मूर्ख बने रहना चाहता है । दुनिया तेजी से भाग रही है, सब चालाक और तेज होना चाहते हैं। दूसरे को गिराकर आगे बढ़ाने की महत्वाकांक्षा का जिक्र करते हुए वे कहते हैं, सच बात तो यह है कि कोई मरना नहीं चाहता है, वे लोग भी मरना नहीं चाहते जो स्वर्ग जाना चाहते हैं।
डॉक्टर जयप्रकाश कर्दम की कहानी ‘वजन’ पर डॉक्टर अमल सिंह भिक्षुक की सार्थक व सारगर्भित समीक्षा भी पत्रिका में है। जीवन मूल्यों की विवेचना करता सीताराम गुप्ता का प्रेरणास्पद लेख ‘उचित नहीं सकारात्मक व उदात्त जीवन मूल्यों की अपेक्षा’ प्रभावपूर्ण है=  रचनाओं के साथ उकेरे गए रेखांकन उत्कृष्ट हैं और उम्दा कलाकृति का रसास्वाद देते हैं।

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