दास्तान-ए- बाबूजी
प्रमोद द्विवेदी

चित्र : अनुप्रिया
बाबूजी गजब के किस्सागो थे। उनके किस्सों में दुनिया के निराले रंग होते थे। हम सब कहते थे, ‘आप मुंशी प्रेमचंद से कम थोड़ो हो…।’ तो वे कहते थे- ‘हां यार सही में, पर बतकही के प्रेमचंद…हमें ना लिखना आया। बुलवा लो, बस…।’
दरअसल यह उनका कुदरती और खानदानी गुण था। उनके पिता जी यानी हमारे बाबाजी नरपत सिंह नरवल भी जमघट में ऐसे ही किस्से रचते थे। वे अंग्रेजों के राजस्व रिकार्ड विभाग में मुलाजिम थे और उर्दू-फारसी के दस्तावेजों से कुछ ना कुछ तारीखी माल निकाल कर लाते और शाम को विजया महारानी की तरंग में कथा के रूप में कुछ बनाई सूरदास, कुछ बनाई भक्तन की तरह सुनाते। ऐसा बाबूजी बताते थे।
बाबूजी ने ही बताया था कि शहर की नूराबाद बस्ती के फिरंगी कब्रगाह में लंदन से जब भी अंग्रेज अफसर आते थे तो नरपत बाबू को जरूर बुलाया जाता, क्योंकि उनके पास ही कब्रों से जुड़ी अनकही दास्तानें थीं। जोसफ रुडयार्ड किपलिंग की एक अनजानी प्रेमिका भी यहां दफन है, यह हमारे बाबाजी ने ही बताया। अब बाबाजी के बताए किस्से विरासत में बाबू जी को मिल गए। नए जमाने के साथ उन्होंने अपने किस्से भी बनाए। पर सब वाचिक परंपरा में ही था। लिखने का कभी अभ्यास भी नहीं किया। वे पछतावे वाले भाव से हंसकर अक्सर कहते, ‘खुदा गंजे को नखा नहीं देता…।’ यह हमें उनकी ही सलाह थी कि एक कवित्त लिखना हो तो पहले सौ कवित्त-छंद याद कर लेना चाहिए। इसलिए हम तो याद करने की अवस्था में ही थे।
लाजवाब किस्सागोई के कारण बाबूजी को मोहल्लेवाले भी बत्तन सिंह कहते थे। कुछ दौर उन्होंने गोरे हुक्मरानों का भी देखा था, इसलिए उनके हर किस्से में अंग्रेज आ ही जाते थे। गोरों को लेकर उन्होंने एक देहाती कवित्त जैसा लिखा था-
पायन में पहिने हैं ब्वारा अस,
कांच की कटोरी आंखिन मां लगाए हैं
ठाड़े ठाड़े मूतत हैं बैठत बनत नाहीं
मूड़े मां इक झउवा अस औंधाए हैं
गले मां डारे हैं गेरउवां अस
मानो कहूं ते टोराय भाग आए हैं…
चूंकि बाबूजी ने इसके रचयिता का नाम नहीं बताया था, इसलिए हम इसे उन्हीं की रचना मानकर चलते थे और शहरुआ लोगों को सुनाते थे।
बाबूजी ने अपने शोध के जरिए ही बताया था कि परासनकलां गांव में अचानक भूरे बालों वाले, गोरे बच्चों की नस्ल इसलिए तैयार हुई थी कि वहां कास्तकारों की बगावत दबाने के लिए एक बार गोरों की पल्टन ने लंबा डेरा डाला था। डर के मारे आदमी भाग गए, औरतें रह गईं। वे कहते थे, ‘गोरवन ने डारे डेरे, भए भुरवने छोरे, ना तोरे ना मोरे…बाकी कहना कम, समझना ज्यादा।’ सुनवइया हुंकारी भरकर कह देते, ‘हौ, महाराज समझ गए।’ बाबूजी अंग्रेज साहब बहादुरों का अहसान भी मानते थे कि उन्होंने घर से दूर परदेस में उनकी रोजीरोटी का बंदोबस्त किया। अंग्रेजी सीखने का अवसर दिया, जिसकी बदौलत वे आजाद भारत में भी ढंग की नौकरी पा गए।
आजाद मुल्क में उन्हें अंग्रेजों की छोड़ी एक टैक्सटाइल कंपनी में बढ़िया नौकरी मिल गई। चाहते तो वे अंग्रेजी के कारण सरकारी नौकरी भी पा सकते थे। उन दिनों मामूली काबिलियत पर ही सरकारी नौकरी मिल जाती थी। पर उन्हें लाला की नौकरी में ही रमना था। यहीं उन्हें तरक्की के अवसर दिख रहे थे।
लेकिन धीरे-धीरे हमने गौर किया कि पचास पार होते ही वे किस्से सुनाने से परहेज करने लगे थे। कारण यह था कि वे अपनी कर्मठता के कारण लाला की कंपनी के बड़े अधिकारी बन गए थे। और माना जाता था कि बड़े अफसर को संजीदा रहना चाहिए। अम्मा भी उनसे ज्यादा बोलने में डरती थीं। अक्सर घर आने वाले मेहमानों को भी हिदायत दे दी जाती कि खा-पीकर अपने-अपने ठिकानों में चले जाएं और रात को बीड़ी कतई ना फूंकें। बड़ा अफसर बनने के कारण पिताजी की नाक भी बहुत संवेदनशील हो गई थी। उस जमाने में एसटीडी वाला फोन आ गया था, जिसकी घंटी कभी भी बज सकती थी। इसलिए काला वाला फोन बाबू जी के सिराहने ही रहता था। अक्सर जब रात डेढ़ बजे घंटी बजती तो हम लोग समझ जाते कुछ बड़ा मामला है। अम्मा उनके माथे पर आए पसीने को पोंछ कर पानी पिलातीं और एक छोटी-सी गोली देकर कंपनी मालिक को गरियातीं। पर बाबूजी इसका पूरा आनंद लेते और कहते- ‘अंग्रेजों से यह सीखना चाहिए कि काम पहले, बाकी बाद में…इसलिए तो ससुरे हम पर राज कर गए।’
…
कुल मिलाकर वे इतने बड़े आदमी हो गए कि हम अपनी भी बात खुलकर कहने से बचते थे। अब वे पुराने सिलेटी स्कूटर को भूलकर लंबी गाड़ी से चलते थे, इसलिए मोहल्ले वाले भी जान गए थे कि बाबू श्याम नारायण सिंह नरवल खास हो गए हैं। मैं चार भाई-बहनों में सबसे छोटा था। बहनें शादी लायक थीं। वर ढुंढ़ाई चल रही थी। लेकिन बड़े भाई की शादी हो गई थी। इससे अम्मा पर काम का भार कम हो गया था। एक बात और कि अब बाबूजी पछइयां कछवाहा खानदान से आई भाभी पर ज्यादा भरोसा करते थे, जो धौंस जमाने के लिए अक्सर जिक्र करती थीं कि महाराजा कर्ण सिंह ने ही उनका नाम पल्लवी सिंह रखा था। इसी वजह से बाबूजी मान बैठे थे कि यह घर को संभाल लेंगी। यही नहीं अपनी ननदों को भी गाइड करेंगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने बाबूजी पर ही वशीकरण किया और ऐसा कि जरूरी कागज वाली कोई फाइल या बड़ी रकम भी अम्मा के हवाले करने के बजाय आवाज देकर कहते, ‘अरे बहूरानी…पल्लवी बेटे इसे संभाल कर रख देना।’ घर की बाकी तीन महिलाओं का जी जलाने के लिए इतना काफी था। खैर, मुझे इससे ज्यादा लेना-देना नहीं था। बस एक ही मलाल था कि बाबूजी कंपनी के आला हाकिम क्या बने, हम तो उनके किस्से सुनने को तरस गए।
प्रभुता की माया के मारे बाबूजी में एक परिवर्तन यह भी आया कि उनकी सारी कमीजें पेट पर कसी होने लगी थीं। अम्मा इसे भी साहबी का प्रतीक मानकर चल रही थीं। बाबूजी सिर्फ एक बार चिंतित लगे जब उनके घुटने पिराने लगे और डॉक्टर गिरधर मनकोटिया ने उनसे कह दिया कि ‘ओवरवेट हो रहे हो। नीपैड पहनकर रहिए।’ जब वे नीपैड पहन रहे होते तो यह जरूर कहते, ये साला रोग कहां से लग गया। जवानी में चौदह किलोमीटर गंगा की रेती पर दौड़ लगाते थे। अवसर पाकर अम्मा उनके कान में फूंक देतीं, ‘मेथी-अलसी खाया करो। आप ठाड़े-ठाड़े पानी पीते हो , इससे भी बीमारी लगती है…।’ इस पर बाबूजी मजाक उड़ाते, ‘ये हगत में सिद्ध वाले टोटके अपने पास रखो…। ज्यादा हुआ तो कोट्टायम जाकर देखेंगे। अपना पुराना किराएदार दिनेशबाबू पिल्लई वहीं है आजकल। बड़ा शानदार घर बनाया है और अक्सर बुलाता रहता है।’
एहतियातन बाबूजी देसी छोड़कर कमोड पर आ गए, ताकि घुटनों को आराम मिलता रहे। अब उन्होंने खाने के बाद वज्रासन में बैठने की आदत भी छोड़ दी थी। लेकिन उनकी व्यस्तता बढ़ती ही रही। अब बीपी की एक गोली रोज लेने लगे थे। चिकनई वाली सब्जी भी बनना बंद हो गई थी। सुबह सैर के लिए जाते जरूर थे। पर घुटनों की असहमति के कारण चहलकदमी करके ही लौट आते और सांस के व्यायाम, ध्यान करके काम चला लेते।
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समय भागता गया। बाबू जी अब साठ के हो गए थे और अगर सरकारी नौकरी में होते तो घर में ही आराम फरमाते। पर यहां तो उल्टा हुआ। कंपनी के मालिक सरवन बाबू यानी श्रवण जैन ने उन्हें शेयर होल्डर बनाकर निदेशक मंडल में डाल दिया। बाबूजी ने गुजारिश की, ‘ भगवान की दया से अब सब कुछ है। अब तो बेटियां भी ब्याह गई हैं। बड़ा बेटा बैंक मैनेजर है। छोटे की दवा एजंसी है। इस बरस उसका घर भी बस गया है। हमने वसीयत भी लिख दी है। अब आराम करने दीजिए।’ लेकिन सरवन बाबू एक ही जवाब देते, ‘श्याम बाबू जी मोरारजी देसाई को देखे हो। बयासी की उम्र में टटस हैं और देश चला रहे हैं। इसलिए अभी बीस साल तक आराम करने की बात मत करना।’ बाबूजी हार जाते। बस कंपनी ने एक ही छूट दे दी कि सेल्स के मामले दूसरे पर छोड़ दो।
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बाबूजी में एक खास बात थी कि उन्हें गीत वगैरह बहुत याद रहते थे। घाघ-भड्डरी की कहावतों से लेकर रमई काका तक उनकी जबान पर रहते थे। बचपन की पढ़ाई में उर्दू भी थी, इसलिए गालिब, मीर, पंडित आनंद नारायण मुल्ला और चकबस्त तक को सुना सकते थे। पर कंपनी के ओहदे ने उनकी सारी प्रतिभा दबा दी थी। शाम को आते तो थककर सीधे रेडियो की खबरें सुनते और सुबह के अखबार का बचा हुआ बीच का पेज पढ़ते और परहेजी खाना खाकर सो जाते।
…
पर आज तो नया इतिहास बन रहा था। आज रात वे नौ बजे के करीब आए और कंपनी का ड्राइवर फारुख उन्हें बैठक के दरवाजे तक छोड़ने आया। बाबूजी धीरे-धीरे चल रहे थे। पर उनके मुख में अफसरी, कड़क संजीदगी के बजाय उन्मुक्त आनंद का भाव था। अम्मा ने उन्हें देखा तो ना जाने किस अंदेशे से धोती का छोर मुंह तक ले जाकर दबा लिया। हमें देखकर जैसे वे एक युग के बाद मूंछों पर हाथ फिराते हुए मुस्काए। माहौल समझकर भाभी ने सहज भाव से कहा, बाबूजी पानी लेंगे क्या…। पर बाबूजी ने पान के साथ आई सुपारी का टुकड़ा जीभ के आघात से बाहर उछाला और अंग्रेजी में अम्मा की ओर देखते हुए कहा, वाट हैप्पंड मिसेज दमयंती देवी, आल इज वेल आर नॉट…। अम्मा ने इस अक्समात अंग्रेजी से ही समझ लिया कि सब कुछ सामान्य नहीं है…वे भुकुर कर बोलीं…बुढ़ौती में बस यही बचा रहा..तुम बताओ कि आल इज वेल की नहीं…। यह पंचामिरत कहां सुड़ुक लिए…।
आज बाबूजी की हालत माखन चोरी में पकड़े गए कान्हा जैसी थी। माहौल को सामान्य बनाने के लिए मैंने ही कहा, अरे जाओ अम्मा खाना-वाना देखो..थके आए हैं बाबू जी..। अब वे हम पर सवार हो गईं, थके नहीं छके आएं हैं…कमरा कित्ता गंधा रहा है, दइया रे…। सुनकर भाभी और मेरी पत्नी रत्ना हंस पड़ीं।
पल्लवी भाभी ने मोर्चा संभाला, अम्मा तुम इधर दूरी बैठो। खाना हम लगाते हैं।
बाबूजी आज जैसे मुख्य अतिथि थे। पूरी बैठक को ऐसे देख रहे थे, जैसे सर्वे के लिए आए हों। उन्होंने दीवार पर लगी राजा रवि वर्मा की एक सुघढ़ पेंटिंग की सुगठित नायिका को बड़ी सूक्ष्मता से निहारते हुए कहा, रज्जन पता है, यह पेटिंग हमें दतिया की महारानी ने भेंट की थी। बॉडी के कट्स देखो, यार कलाकार की कल्पना को दाद देनी पड़ेगी। मैं समझ रहा था, मय की मस्ती में नारी की देह देखने का जो बावरा सुख होता है, उसी का तास्सुर उन पर सवार हो रहा था। मैंने ज्ञान बघारने के लिए कह डाला, यह तो कैलेंडर आर्ट है। पेंटिंग तो वॉन गॉग और पिकासो ने बनाई हैं। बाबूजी को इस शास्त्रीय ज्ञान से कोई मतलब नहीं था। वे तो उस जमाने में मोहन मीकिंग के कैलेंडरों में दिखने वाली पेंटिंग को ही अपनी कला की सीमा मानते थे।
बाबू जी ने चश्मा उतारा तो उनकी आंखों ने भी मय की झलक दिखा दी। अब उन्होंने पान को पूरी तरह हजम कर लिया था। इसलिए साफ बोल सकते थे। आज उनकी बेबाकी का लुत्फ लिया जा सकता था। आज वे भूल रहे थे कि एक कंपनी उनके बूते चल रही है। मुझे तो वे दिन याद आ रहे थे, जब बाबू जी रात के खाने में खूब बतियाते और जार्ज पंचम से लेकर ग्वालियर के सिंधिया तक को याद करते। काशी नरेश की शान बखानते और लखनऊ में रक्स की महफिलों का सजीव वर्णन कर देते और बताते कि भैरवी की महान ठुमरी बाबुल मोरा नैहर छूटोहि जाय वाजिद अली शाह ने लखनऊ से बिछुड़ते वक्त लिखी थी जिसे बाद में फिल्म स्ट्रीट सिंगर में गाकर केएल सहगल ने अमर कर दिया। फिर गुनगुनाते-राधे रानी दे डारो ना…। यह बाबूजी से ही पता चला कि कानपुर में मेस्टन रोड के पास एक गली की तवायफ को सुनकर सहगल ने एक ठुमरी सीखी थी। बाबूजी मलिका पुखराज के नग्मे अभी तो मैं जवान हूं को जीवन का दर्शन मानकर चलते थे। और अक्सर यह चर्चा करते थे महाराजा हरिसिंह को जहर देने की साजिश रचने के कारण उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा।
आज मैं मना रहा था मय की यह मस्ती कम से कम दो घंटे रहनी चाहिए। वे कितने मगन लग रहे थे। घर मुद्दतों बाद सरस हुआ जा रहा था। अम्मा ने भले ही मुंह को ढंक रखा था, पर लग रहा था कि वे लंतरानियों का आनंद लेने के लिए बेमन से ही सही, तैयार हो गई हैं। बाबूजी का खाना लग रहा था। आज खीरा उनकी डिमांड पर था। आज भरवां मिर्च खाने का मन भी किया। बस दो रोटी और चावल के साथ फ्राई दाल। सब बाबूजी को खाते हुए देखने का सुख प्राप्त करना चाहते थे।
पर बाबूजी ने हुक्म दिया, इट इज अगेंस्ट डेकोरम…
हम घबराए, क्या हुआ….
सब लोग यहीं खाओ..
उनके हुक्म को माना गया। सबकी थाली ड्राइंग रूम में ही लगने लगी। इस बीच बाबू जी फाइनली अपनी पारपंरिक लुंगी में आ गए थे, जिसे वे पंचा कहते थे। इससे यह भी सिद्ध हो गया था कि आज वे भले ही वे तरंगित थे, पर होशदारी पूरी थी। अब उन्होंने पाल्थी मार थी। खाने के पहले भइया के दोनों नटखट बच्चों के बारे में पूछा तो सूचित किया गया सबको सुला दिया गया है। बच्चों से चूंकि वे अंग्रेजी में ही बात करते थे, इसलिए उनका मन किया होगा कि मदिरा से उपजी अंग्रेजी बाल सुपात्रों को सुनाई जाए।
बस अब उन्हें किस्सागोई के लिए हुसकाने भर की देर थी। मैंने देखा, खाने का आनंद वे आंख बंद करके ले रहे थे। शायद जायका ज्यादा मिल रहा था। भाभी ने पूछ ही लिया, दाल में सब सही है ना…।
वे भोजन-ध्यान में ही बोले, दाल के आगे दुनिया के सारे व्यंजन बेकार हैं। अब तुम लोगों को यकीन नहीं होगा , एक बार शिवगंज के सर्किट हाउस में इंदिरा गांधी आई थीं। डीएम के. उन्नीकृष्णन ने नानवेज से लेकर तमाम चीजें बनवाईं। पर इंदिराजी ने आते ही कह दिया कि आज प्रयागराज में अपने महाराज से मिलना हैं, इसलिए लहसुन, प्याज तक नहीं खा सकते। अफसरों के प्राण सूख गए। मैडम भूखे जातीं। फौरन हमारे बड़े मालिक यानी हमारे लच्छू बाबू ( जैन साहब के पिताजी ) को याद किया गया। कनपुरिया अरहर की दाल में जीरे का छौंका लगा था। देहरादूनी साबरमती और दाल खाकर इंदिराजी इतना खुश हुईं कि लच्छू बाबू को दिल्ली आने का न्योता दिया और अपने रसोइए को बताया कि अरहर की दाल कैसे बनती है। बाबूजी ने आगे जोड़ा, आज गांधी परिवार में अरहर की दाल और चावल को राष्ट्रीय व्यंजन की तरह देखा जाता है।
अब हम लोग प्रश्नकर्ता बन गए थे। पहला प्रश्न मेरा था, बाबूजी अंग्रेज लोग दाल खाते थे…
असल में दाल तो एक बहाना था। हमें तो अंग्रेज को लाना था, जो उनका प्रिय विषय था।
अंग्रेजों की बात छेड़ते ही, वे थोड़ा तन गए। शायद उनके सम्मान में तन जाते थे। फिर लौट आए किस्साई रंग में। बाबूजी तब कलकत्ते में थे। वही देश की असली रोजगार-कला की राजधानी थी। बाबू जी गहरे चले गए….। हमने पूछा, अलकसा रहे हैं क्या, मन ना हो तो बाद में बताइएगा।
वे सिर झटककर बोले, अमां नहीं…याद कर रहे हैं उसका नाम क्या था ….लास्ट में जॉन लगा था, इसलिए जॉन साहब ही बोलते थे…पर पूरा नाम ऐं….गोली मारो। दिल का बढ़िया आदमी था। कलकत्ते में उससे हमारी दोस्ती ऐसे हुई कि एक बार घाट के किनारे वह लहरों को निहार रहा था कि उसके ही गोरे साथी ने ही उसे मजाक में धक्का दे दिया, शायद उसे लगा हो कि जॉन साहब तैरना जानते हों, पर वह बूड़ने लगा…। जब एक मिनट तक वह नहीं दिखा तो डरकर वह चिल्लाने लगा—हेल्प-हेल्प…वह धारा की ओर इशारा कर रहा था, जहां जॉन डूब रहा था। मैंने फौरन जमुना में छलांग लगा दी और उसे बचाया। उसे होश में आने के बाद बताया गया कि इस जिगरदार हिंदुस्तानी ने जान बचाई है। इसके बाद तो वह मेरा पक्का दोस्त बन गया। उसके पिता मेजर थे और कलकत्ते में उनका अच्छा रसूख था। मेजर साहब ने मेरा अहसान मानते हुए हमें एक रिकार्डिग कंपनी में लगवा दिया। वहां पैसे तो गुजारे लायक थे, पर इसी बहाने आरसी बोराल, पहाड़ी सन्याल, केएल सहगल, रूबी मेयर्स से मुलाकात हो गई। मुझे आज भी याद है, कलकत्ते के मारवाड़ी सेठ सुखदेव सरावगी के घरेलू जलसे में सहगल की हीरोइन रतन बाई ने ठुमके लगाए थे।
बाबू जी यह सुनाते हुए थोड़ा भावुक भी हुए , क्योंकि जॉन की भरी जवानी में कलकत्ते में ही रहस्यमय बीमारी से मौत हो गई थी और मेजर साहब जब सन सैंतीलीस में ब्रिटेन लौटने लगे तो बाबूजी को साथ ले जाना चाहते थे। पर बाबूजी अंग्रेजों के खानपान से आतंकित थे, इसलिए जाने की हिम्मत नहीं पड़ी। एक और बात, उन्हें हमारी अजिया ने डरा दिया था कि अंग्रेज लंदन ले जाकर ईसाई बना देते हैं और क्षत्रिय-बाभन का जनम तो बड़े तप से मिलता है।
जॉन के किस्से के बिना बाबूजी की कहानी पूरी नहीं होती थी। आज बहुत दिन बाद वे फिर गमगीन हुए।
फिर हल्का मूड करने के लिए , बल्कि अम्मा को चिढ़ाने के लिए बताने लगे कि यार कलकत्ते के बड़ा बाजार में ना जाने कितनी सलोनी बंगालिनें हमारे पीछे पड़ी रहीं। एक से रिश्ता भी पक्का हो गया। छाया चंदा उसका नाम था। पर बड़ा बाजार में आढ़त का काम करने वाले हमारे मौसिया जटाशंकर सिंह डंडा लेकर खड़े हो गए। हमारा रिश्ता खत्म हो गया और तुम्हारी अम्मा गले लग गईं।
इस बयान के बाद अम्मा गुस्साईं कम मुस्काईं ज्यादा- अरे जाओ हांकूसिंह…किस्मत तुम्हारी जो मिल गए हम, नहीं तो पूछता कौन….रड़ुआ बने रहते।
बाबूजी मूंछों में ही मुस्काए। अब वे सामान्य हो चले थे। राधेश्याम रामायण की कुछ लाइनें गुनगुनाने लगे- ये भाई रामलखन दोनों इस दंडकवन में आए है, साथ में सीता नाम की सुकुमारी नारी लाए हैं…। उनकी आवाज में केसी डे जैसा खरज था, इसलिए सुनने में अच्छा लगता था, पर अभ्यास ना होने के कारण बेसुरे और बेताला रहते थे। पर तीनताल, रूपक और चौदह मात्रा की चर्चा करने से नहीं चूकते। संगीत शायद उन्हें संस्कार में मिला था और वे बताते थे उनकी माता जी यानी हमारी अजिया कृष्णकली देवी चकिया पीसते-पीसते आठ दस गीत गा डालतीं थीं।
इतना किस्सा सुनने के बाद हमारा पूछना तो बनता था ही, आज कहां चले गए थे…कोई पार्टी थी क्या बाबू जी…बिना इनकार किए बाबूजी बोले, अरे यार आज सरवन बाबू के पोते की पहली सालगिरह थी।
सरवन बाबू को लाख समझाए कि हमारे घर में मधुपान एलाऊ नहीं है तो हाथ पकड़कर ले गए, अमां कैसे ढिलुआ सिंह हो…आज तुम्हारा सुराप्रासन कर देते हैं…। खुद ही गिलास लाकर दे दिए…। पर यार रिलैक्स लग रहा है। सरवन बाबू बोले थे, यह भैरव बाबा का प्रसाद है।
मैं समझ गया कि आज भले ही उनकी पहली मयकशी थी, पर उन्हें पछतावा होने की बजाय अच्छा ही लग रहा है। भाभी ने खानदानी ढ़ग से सुझाव दिया कि इसमें खराबी क्या है, इतना कंजरवेटिव भी क्या होना। पर मेरा सजेशन है, आप घर में रखिए….मेरे बाबूजी भी यही करते थे…। हमारे यहां तो ठाकुरों में यह कॉमन है। पर हां, पी के कोई बलबलाए नहीं। अभी अमेरिका के एक हार्ट स्पेशलिस्ट ने रिसर्च में बताया है कि आदमी दो पैग लेता रहे तो दिल भी ठीक रहता है।
घर की अदालत में बाबूजी बरी हो गए थे। अम्मा यह कहकर उठ कर चली गईं , तुम लोग रतजगा करो, भइया हम तो चले सोने…। बाबूजी ने अंग्रेजी में कहा, वैरी बैड, हमें छोड़कर, अच्छा गुडनाइट लेडीज एंड जैंटलमैन…। और बाबूजी अटकती अंग्रेजी के साथ ही सोने गए। हम सब मिलकर मुस्करा रहे थे। बरसों बाद बाबूजी के साथ ऐसे मुस्कराने का अवसर मिला था।
मेरे शरारती मन ने कहा, शुक्रिया अंगूर की बेटी, बाबूजी बरसों बाद लौट कर आए हैं।
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अब बाबूजी अक्सर थोड़ी लगाकर आने लगे थे। घर में मान लिया गया था कि बड़े साहब लोगों के लिए पार्टियां जरूरी होती हैं। बाबूजी का दावा था कि दो पैग लेने से खाना भी सुहाता है। स्वादी लगता है। नींद बिना बाधा के पूरी होती है और सुबह पेट एकदम साफ। यानी इसे उन्होंने दवा का रूप मान लिया था और अंग्रेज साहब बहादुरों के हवाले से कहते थे कि लिमिट में ली जाए तो दिल भी दुरुस्त रहता है। हमारे घर में मान्यता मिल गई तो उन्होंने यदाकदा ठेकेदारों से उपहार में मिलने वाली स्काच को घर में भी रखना शुरू कर दिया। यह लाइसेंसी बंदूक की तरह छिपाकर रखी जाती और इसकी इंचार्ज भी उन्होंने पल्लवी भाभी को बना दिया था जिन्हें यह ट्रेनिंग पहले से थी कि एक लार्ज पैग में जल की कितनी मात्रा रखनी होती है। पर यह कीमती मदिरा तभी उपयोग में आती जब घर में पीने का मौका आता। या उनके गवैये साथी राम जियावन पाठक आ जाते। राम जियावन बुढ़ापे में पुलस्कर जी की तरह गाते थे और दावा करते थे कि जवानी में उनकी आवाज खरज की गायकी के लिए ही थी। पर एक बार दरभंगा में किसी ने उन्हें पान में किमाम के साथ सिंदूर खिला दिया जिससे गले के तार दरक गए और उनकी आवाज का गरूपना जाता रहा। वे मध्य में ही गा पाते, महीन आवाज के साथ। पर उनकी गायकी एक पैग लगने के बाद ही रंग में आती। हमारे घर में रखी जर्मन रीड वाली हारमोनियम के दिन बहुर जाते। इसी बहाने संगीत संध्या हो जाती। बाबूजी को अख्तरी बाई पसंद थीं तो उनकी फरमाइश पर वे दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे…जरूर सुनाते।
कुल मिलाकर बाबू जी अफसरी के साथ सामंजस्य बैठाते हुए हसंने-मुस्कराने लगे थे। अम्मा भी भयमुक्त होकर मजाक कर लेतीं। सही बताएं तो बाबूजी में आए इस परिवर्तन से कभी-कभी हमें भी लाभ हो जाता और वापस गुप्तवास में जाती बोतल से सौ ग्राम दारू निकाल कर अपने हलक को तृप्त कर लेते। सही बताएं, बचपन की डॉक्टर ब्रांडी के बाद सुरा के नाम पर हमने जो पिया, वह बाबूजी की स्काच से। हमारे घर में और कोई सेवन नहीं करता था।
खास बात यह थी कि बाबू जी मंगल और गुरुवार को नहीं पीते थे। मंगल को हनुमान जी के कारण और गुरुवार को इसलिए परहेज रखते, क्योंकि हमारे घर में आने वाले ज्योतिषी हरचरण शास्त्री ने उन पर गुरु का प्रभाव बताया था और कहा था, गुरुवार को कुछ पीला पहनना और नशा सेवन से दूर रहना। पीला पहनने के नाम पर बाबू जी ने दो पीले घुटन्ने बनवा रखे थे। जेब में पीला रुमाल भी रखते थे।
…
पर कई बार दिन बड़ा मनहूस होता है। उस दिन बाबूजी रात ग्यारह बजे तक नहीं आए तो घर में सब लोग परेशान हो गए। कंपनी के टाइम आफिस में फोन किया तो सिक्योरिटी अफसर संतकुमार ने बताया कि साहब तो शाम सात बजे ही निकल गए थे। अब तो सबकी हालत खराब। हम दोनों भाई मोटरसाइकिल लेकर उन्हें ढूंढ़ने निकले। थाने में पता किया तो कंट्रोल रूम को सूचित किया गया। आधे घंटे बाद खबर आई कि एक बुजुर्ग ने ज्यादा पीने के कारण राधाआश्रम के पास गाड़ी सड़क किनारे लगा ली है और सीट पर ही पसरे पड़े हैं। कार का शीशा खुला पड़ा है। दरोगा के साथ हम लोग मौके पर पहुंचे तो पहचाना यह तो अपनी ही गाड़ी थी। बाबूजी ने सर पीछे टिका रखा था। शीशा सचमुच खुला पड़ा था। किस्मत की बात यही थी कि किसी चोर-उचक्के की नजर इधर नहीं पड़ी। गाड़ी में ही उनका बैग रखा था। ऊपर वाली जेब में वे पैसे रखते थे। दरोगा ने देखते ही कहा, अरे ये तो सिंह साहब हैं…। मैंने पूछा, आप जानते हैं। उसने कहा, हां एक बार कंपनी में इनकम टैक्स के छापे के समय टीम के साथ हमारी ड्यूटी भी लगी थी। हम लोगों की बड़ी खातिरदारी की थी साहब ने…पर यह चस्का कैसे लग गया…यार आप लोग इन्हें समझाइएगा…टाइम खराब है, बुढ़ौती में नककटी कराने से क्या फायदा। दरोगा की नेमप्लेट पर लिखा था-चंद्रभान सिंह गौतम। हम समझ गए यह भी ठाकुर है। उसके प्रभाव का सम्मान करते हुए भइया ने कहा, ठाकुर साहब आपकी बात सही, ख्याल रखेंगे। पर ठाकुर साहब तो पुलिसिया उसूल के हिसाब से कुछ आस लगा लिए थे। मैंने दो सौ रुपए पकड़ाए तो उनका मानवीय रूप निखर आया, बोले आप ड्राइव कर लेते हो..। मैंने कहां, हां, चलाकर ले जाएंगे। इस वार्तालाप के बीच बाबू जी थोड़ा बाहोश दिखे और शराबी वाले आत्मविश्वास और बहाने के साथ बोले, पता नहीं कैसे चक्कर आ गया था। लग रहा है बीपी हाई हो गया है, इसलिए गाड़ी किनारे लगा ली।
मैंने पूछा, बाबूजी फारुक को क्यों नहीं लाए…
बाबूजी बोले, उसकी बेटी अस्पताल में भर्ती है, उसे जाना था।
फिर दरोगा ने आत्मीय भाव से कहा, सिंह साहब थोड़ा एवाइड करिए ऐसे में। समझो बड़ी बला टल गई।
हम बाबूजी को घर ले आए। भइया बाईक से पीछे-पीछे आए।
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घर में बाबूजी आज पहली बार इतना शर्मिदा दिखे। पहली बार नाली में बैठकर ओकते रहे। बोलते जा रहे थे-अंडा भुर्जी रिएक्ट कर गई है…। पूरे घर को चिंतित देखकर उन्हें लगा कि वाकई बड़ा गुनाह उन्होंने कर डाला। अम्मा फुसक रही थीं। करम को कोसते हुए कह रही थीं, सोचे नहीं थे कि पियक्कड़ की मेहरिया बनकर जिंदगी कटने वाली है। इससे बढ़िया तो परमात्मा हमें सद्गति दे दे। सुनेंगे तो लोग क्या कहेंगे। अम्मा लोकलाज से बहुत डरती थीं, इसलिए सबसे यही कहतीं कि कोई ऐसा काम ना करो जिससे समाज में नककटी हो।
वाकई आज उनकी बातें बाबूजी को दिल पर लगने वाली थी। आखिरकार वे एक कंपनी के निदेशक थे। एकदम गंगाजली उठा ली, आज के बाद बंद और भाभी को हुक्म दे दिया, जो बोतलें धरी हैं, उन्हें कल बंबा में डलवा दो। फिर इरादा बदल कर बोले, मेहरोत्रा अंकल के यहां पंहुचा देना। शौकीन हैं वो…। दूसरे दिन ही बोतलें घर से विदा हो गईं। गरीबों का ख्याल भी रखा गया। आगामी होली को देखते हुए एक बोतल पड़ोस के धोबी बाबू कनौजिया को दे दी। एक हमने अपने लिए छिपाकर गैरेज में रखवा दी। बाकी मेहरोत्रा साहब को दे दी, जो पीने और पिलाने के दस्तूर के कायल थे। दारूदान को वे महादान मानते थे। …
आमतौर पर मयकशों की कसमें टूटने के लिए ही बनी होती हैं। पर बाबूजी उनमें से नहीं थे। उन्होंने सचमुच पीनी छोड़ दी थी। आला मीटिंगों में भी विख्यात हो चुका था कि वे सूफी हो गए हैं। कोई उन पर जबरदस्ती नहीं करता। श्रवण बाबू भी उनकी भावनाओं का ख्याल रखते।
वे फिर संजीदा होने लगे। शराब से तौबा ही नहीं की, एक दिन पता चला कि बाबूजी ने काशी के नागा बाबा से दीक्षा ले ली है। बाबा ने उन्हें मंत्रजाप करने को कहा। बाबूजी के सदाबहार किस्से-कवित्त फिर विराम पा गए। घर में फिर नीरसता छा गई। अब उन्हें रसीले किस्सों के लिए उकसाना कोई आसान काम नहीं था। बाबूजी में यह खास बात थी कि वे जिद कर लें तो अडिग रहते थे। वे कहते थे, तौबा कर ली तो कर ली- चंद्र टरै सूरज टरै टरै जगत व्यवहार, पै दृढ़ श्री हरिशचंद को टरै ना सत्य विचार…।
मैंने मजाक में कहा, बाबूजी यह तो ठीक है, पर आप ही ने सुनाया था-
एक तुम ही हो बहक जाते हो तौबा की तरफ
वरना रिंदों में बुरा चाल-चलन किसका है…
मगर बाबूजी पर इस शेर का भी असर नहीं हुआ। वे सचमुच किस्सों से निजात पा चुके थे।
उनका किस्सागोई वाला रूप भी गुजरे वक्त का किस्सा बन चुका था। (Pdwivedi.js@gmail.com)
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