‘जरा गैरत तो दिखती है / सियासत में नया होगा’

( “इरा” पत्रिका का अप्रैल-मई 2025 संयुक्तांक)

समीक्षक की कलम से

‘इरा’ पत्रिका के अप्रैल-मई 2025 के संयुक्तांक में शिज्जू शकूर की यादगार गजलों के कुछ शेर हैं –
‘वह लड़खड़ा गया खुद हाथ छोड़कर मेरा/ जो दे रहा था मशविरा मुझे संभलने का/
‘वह आंच छोड़ गया मुस्कुराते होठों की/ किया था अहद कभी जिसने साथ चलने का’
‘नफरत ने फिर किसी के मकां को गिरा दिया/ जाने नजात पाएंगे कब इस खबर से हम/ इल्जाम कुफ्र का कहीं तोहमत फरेब की/ आखिर कोई बताए कि गुजरे किधर से हम
‘न यूं ही वह झुका होगा/ हवाओं से लड़ा होगा/ अजब है हौसला उसमें/ वह बेटी का पिता होगा/ जरा गैरत तो दिखती है/ सियासत में नया होगा/ जिगर वाले नहीं कहते/ कि आगे जाने क्या होगा’।
डा. कृष्ण कुमार नाज की गजलें भी पत्रिका के इस अंक में चार चांद लगाने वाली हैं –
‘उसी चादर को किया वक्त ने धज्जी-धज्जी/ ओढ़ रक्खी थी जो गुरबत ने उसूलों की तरह/ जिनके साये भी कराते हैं चुभन का अहसास फितरतन होते हैं कुछ लोग बबूलों की तरह’।
उनकी एक और बेमिसाल गजल के शेर हैं –
‘हवाओं तुम ही निकालो कोई नई तरकीब/ कि जर्द पत्ता शजर से बिछड़ना चाहता है/ बढ़ाओ और बढ़ाओ जरा सी लौ उसकी/ कि ये चिराग अंधेरों से लड़ना चाहता है/ जो आंखें ख्वाब सजाती थीं हर घड़ी उनमें/ अब आंसुओं का समंदर उमड़ना चाहता है’।
पुष्पेंद्र पुष्प की दिल को छू लेने वाली एक गजल के कुछ अशयार हैं –
‘कोई मजबूत शाना चाहता हूं/ मुहाजिर हूं ठिकाना चाहता हूं/ मेरी आवारगी थमने लगी है/ मैं खुद में लौट आना चाहता हूं/ तुम्हीं ने होंठ सिल रक्खे हैं मेरे/ तुम ही को गुनगुनाना चाहता हूं’
सुधा गोयल की कहानी ‘वसंत कब आएगा’ बेहद मार्मिक और अविस्मरणीय है। लेखिका ने बेटे-बहू के बेरुखी भरे निर्मम व्यवहार को झेलते रहने पर मजबूर, शरीर से अशक्त होती जा रही वृद्धा काकी की जीवन व्यथा को बहुत ही सशक्त ढंग से उकेरा है
पत्रिका के सारगर्भित और विचारोत्तेजक संपादकीय में अलका मिश्रा ने इंसानी लालसा की वजह से पर्यावरण को होने वाली अपरिवर्तनीय क्षति के मुद्दे पर सार्थक चर्चा की है। उन्होंने उचित ही कहा कि ‘अब जबकि हम इस परिवर्तन को पूरी तरह से रोक नहीं सकते तो कम से कम इसकी तीव्रता को आवश्यक काम कर सकते हैं’। इसी आलेख में उन्होंने पहलगाम हमले पर भी गंभीर और भावपूर्ण विमर्श सामने रखा है और महात्मा बुद्ध के इस कालजयी कथन को उद्धृत करते हुए स्थाई शांति का संदेश दिया है कि ‘हजारों लड़ाइयों को जीतने से अच्छा है कोई अपने को जीत ले’।
निशा राय के गीत ‘मी टू’ की तो जितनी तारीफ की जाए, कम है। यह अविस्मरणीय गीत कालातीत है और भूगोल से परे जाकर स्त्री मन की छटपटाहट को तीखे कटाक्ष के साथ अभिव्यक्त करता है। गीत की कुछ पंक्तियां हैं –
‘चम्पा मजूरन ने फुलवा आ बिमली से, महरी की बेटी ने पूछा ये कमली से, रेडियो आ टीवी जो दिनभर सुनावत है, तुमका पता है, का मी टू कहावत है?
टाइम कुटाइम जौन अंकल घर आवत है। बिटिया बिटिया कहि जे गोदी बैठावत है। टाफी बिस्कुट देहला खातिर बुलावत है। कपड़ा में झांकत आ देहिया सहरावत है।
अम्मा के लागेला अंकल खेलावत है, उहे का फुलवा रे मी टू कहावत है?
श्री हरि के हाथों जो वृंदा ठगान रही, इंदर से छली जो अहिल्या पथरान रही. भरले सभा बीचे खींचे थे सारी रे, पापी दुर्जोधन, दुशासन बेभिचारी रे, धरती है तब से जो होते चलि आवत है, उहे का कमली रे मी टू कहावत है’।
पत्रिका के इस अंक में महान रूसी कथाकार एंटन चेखव की अनुदित कहानी सोने में सुहागा है। सुशांत सुप्रिय ने बहुत अच्छा अनुवाद किया है, जो कहानी के मर्म को सशक्त तरीके से अभिव्यक्त करने में सफल है। कालजयी रूसी कथाकार की यह कहानी पढ़कर पाठक निश्चित ही यह अनुभव करेंगे कि चेखव की रचनाएं क्यों विश्व के महानतम क्लासिक साहित्य में शुमार की जाती हैं।
केशव शरण की कविता ‘पंख लग जाएंगे’ की यह पंक्तियां अद्भुत शब्द-चित्र उकेरती हैं –
ठहरी हुई हवा में शाम ढल रही है/ नदी थम रही है/ अंधेरा उतर रहा है/ सितारा उभर रहा है पेड़ों पर पंछियों का शोर निढाल हो रहा है।
शैलेंद्र चौहान की कविताएं भी प्रभावित करती हैं। उनकी एक कविता आशंका है की कुछ पंक्तियां हैं –
न ट्रेन गुजरेगी/ न पुल थराथराएगा/ न जंगल में शिकार के लिए कोई हांक लगाएगा/ न दिखेगा बस अड्डे पर इक्का/ ना बस कंडक्टर बुलाएगा।

जीवन की अंधाधुंध दौड़ में थक कर निढाल मनुष्य की पीड़ा को व्यक्त करतीं योगेश कुमार ध्यानी की यह पंक्तियां अद्भुत हैं –
‘बदन पड़ा होगा बिस्तर पर इतना ज्यादा थक कर/ करवट इतनी लंबी होगी ज्यों धरती का चक्कर’।

इनके अलावा, वसंत जमशेदपुरी के गीत, कैलाश बाजपेयी और वर्षा अग्रवाल के हाइकु, डा. शील कौशिक की क्षणिकाएं, मनोज शुक्ल मनुज के छन्द भी पठनीय और ह्रदयस्पर्शी हैं।
जानकी बिष्ठ वाही और नीलिमा शर्मा निबिया की लघुकथाएं यादगार हैं। वाही की लघुकथा छू लिया तो यकीनन दिल को छू लेने वाली है।
डा. उपमा शर्मा के उपन्यास अनहद की पहली कड़ी और प्रगति गुप्ता के उपन्यास पूर्णविराम से पहले की चौदहवीं कड़ी भी निश्चित ही पाठकों को मनोरम लगेगी।
धरोहर साहित्य के अन्तर्गत कानपुर का नवजागरण (प. लक्ष्मीकांत त्रिपाठी) का भाग सात रोचक और बहुत जानकारीपूर्ण है।
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