खतरे में मानवाधिकार : सीडीपीआरएस ने 30 को दिल्ली में बुलाया सम्मेलन, न्यायमूर्ति बीएन कृष्णा और एके पटनायक, प्रशांत भूषण, गौहर रजा, संजयगुहा ठाकुर्ता वगैरह करेंगे शिरकत

जनमन इंडिया ब्यूरो/ सोना सिंह
दिल्ली। भारत में मानवाधिकार को ‘खतरे में’ मानते हुए मानवाधिकार संगठन सेंटर फॉर पोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स एंड सेक्युलरिज्म (सीडीपीआरएस) आगामी 30 मार्च को नई दिल्ली स्थित गालिब इंस्टिट्यूट हॉल में राष्ट्रीय सम्मेलन करने जा रहा है। संगठन ने अपने परचे में एक गंभीर और भावुक अपील करते हुए कहा है ‘ इतिहास हमें कार्रवाई के लिए पुकार रहा है।‘
संगठन के एक प्रवक्ता और कर्मचारी नेता विजयपाल सिंह ने बताया कि चूंकि देश में इस समय लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकारों को कुचला जा रहा है और धर्मनिरपेक्षता को गहरे संकट में डाल दिया गया है। इसलिए, इस वक्त अपने मानवाधिकारों को लेकर अलख जगाने की जरूरत है। उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज न्यायमूर्ति बीएन श्रीकृष्णा सम्मेलन की सदारत करेंगे तथा सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज न्यायमूर्ति एके पटनायक मुख्य वक्ता होंगे। इसके अलावा, विधिवेत्ता प्रशांत भूषण, आदित्य सोनी, वरिष्ठ पत्रकार संजयगुहा ठाकुरर्ता, गांधीवादी समाजसेवी कुमार प्रशांत, शिक्षाविद् गौहररजा, जोसेफ सी मैथ्यू, अनिल नारिया और संगठन के राष्ट्रीय संयोजक द्वारिकानाथ रथ, इंडिएन एक्सप्रेस समूह से जुड़े रहे पत्रकार राम जन्म पाठक वगैरह सम्मेलन में शिरकत करेंगे।
उन्होंने बताया कि 1975 में जब मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था, तो लोकतंत्र की बहाली की मांग करते हुए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू हुआ था। इस वातावरण में इस नागरिक अधिकार संगठन का जन्म हुआ था। इसने 23-24 जुलाई, 1983 को नई दिल्ली के गालिब इंस्टिट्यूट हॉल में अपना पहला राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया था। इस में न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर, अधिवक्ता गोविंद मुखोटी और कुलदीप नैयर जैसे प्रतिष्ठित लोगों ने सबसे आगे बढ़कर इसमें हिस्सा लिया था।
संगठन की ओर से जारी परचे में कहा गया है कि लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार आंदोलन को मजबूत करने की अत्यंत आवश्यकता है। लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकारों का लगातार उल्लंघन देश को महिलाओं और दलितों के लिए असुरक्षित बना रहा है। साल 2021 में अकेले 31,677 बलात्कार के मामले दर्ज हुए—औसतन 86 मामले प्रतिदिन। 2022 में महिलाओं के खिलाफ 4.45 लाख से अधिक अपराध दर्ज किए गए। झूठी शान मामले में हत्या (ऑनर किलिंग) जैसी घटनाएं अभी भी जारी हैं। कोलकाता में डॉ. अभया की हालिया हत्या ने पूरे देश में आक्रोश पैदा कर दिया।
परचे में कहा गया है कि प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप एक्ट, 1991 विवाद का कारण बन गया है, जिससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है और देश में सांप्रदायिकता का जहर घुल रहा है। चुनाव अब लोकतांत्रिक इच्छाओं का प्रतिबिंब नहीं रह गए हैं, बल्कि पैसे, मीडिया और माफिया के जरिए हेरफेर का साधन बन गए हैं। आम लोग उस लोकतंत्र से मोहभंग महसूस कर रहे हैं, जो केवल चुनावों तक सीमित है। भारत की वैश्विक छवि को भी नुकसान हुआ है, ह्यूमन फ्रीडम इंडेक्स में 165 देशों में भारत 109वें स्थान पर है।
मानवाधिकार खतरे में
परचे में आगे कहा गया है कि एनएचआरसी, एनसीडब्ल्यू और एनसीएम जैसी संस्थाएं, जिनका कार्य मानवाधिकारों की रक्षा करना है, अब निष्क्रिय हो चुकी हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता और सभा की स्वतंत्रता गंभीर खतरे में हैं। नागरिक डर के साए में जी रहे हैं, सीबीआई जांच, ईडी छापों और कठोर कानूनों जैसे यूएपीए, एनएसए, पीएमएलए और पीएसए के तहत गिरफ्तारियों का सामना कर रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम की जड़ें मानवाधिकार, लोकतांत्रिक अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता की लड़ाई में थीं। तिलक जैसे नेताओं ने “स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” का नारा देकर लाखों लोगों को प्रेरित किया।
लेकिन आज ये अधिकार गंभीर खतरे में हैं। भारतीय न्याय संहिता (BNS), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) जैसे कानून उपनिवेशवाद खत्म करने के नाम पर लाए गए हैं, लेकिन ये कठोर औपनिवेशिक कानूनों को और मजबूत करते हैं। औपनिवेशिक कानूनों को समाप्त करने के बजाय, क्रमागत सरकारों ने एएफएसपीए और यूएपीए जैसे और भी कठोर कानून पेश किए हैं। जस्टिस मुल्ला की पुलिस राज्य के उदय के बारे में चेतावनी एक वास्तविकता बन गई है। न्यायपालिका भी उसी सत्तावादी रुझान का अनुसरण करती प्रतीत होती है।
प्रतिरोध की विरासत : इन स्तंभों के निधन के बाद, सीडीपीआरएस कुछ ही राज्यों में सक्रिय रह गया और राष्ट्रीय स्तर पर विकसित नहीं हो सका। बढ़ते मानवाधिकार उल्लंघनों के मद्देनज़र, राष्ट्रीय स्तर पर इसे पुनर्जीवित करना अत्यंत आवश्यक है। आगामी राष्ट्रीय सम्मेलन इन समस्याओं को संबोधित करेगा और भविष्य की कार्रवाई के लिए एक नक्शा तैयार करेगा।
परचे में कार्रवाई का आह्वान करते हुए कहा गया है कि वर्तमान स्थिति बेहद चिंताजनक है। संसदीय निरंकुशता और हिंदुत्व बहुसंख्यकवाद लोकतंत्र के सार—समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे—को नष्ट कर रहे हैं। आरएसएस द्वारा प्रचारित सहिष्णुता का सिद्धांत महज एक दिखावा है। साम्प्रदायिक हिंसा बढ़ रही है, 2017 से 2021 के बीच 2,908 मामले सामने आए। केवल 2024 में ही 59 साम्प्रदायिक दंगे हुए, जिनमें से अधिकांश धार्मिक त्योहारों या जुलूसों के दौरान भड़काए गए।
अल्पसंख्यकों को पहले से कहीं अधिक परेशान और धमकाया जा रहा है। 1991 के पूजा स्थल अधिनियम को लागू करने में भारत की विफलता ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है। दलितों पर भी अत्याचार बढ़ रहे हैं। 2013 के मैला ढोने वालों के पुनर्वास अधिनियम के बावजूद, 2018 से 2023 के बीच 443 मैला ढोने वालों की सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान मौत हो गई। पर्यावरणीय चिंताएँ भी गंभीर हैं। दिल्ली का वायु प्रदूषण एक ज्वलंत उदाहरण है, और भोपाल गैस त्रासदी के 40 साल बाद भी जहरीले कचरे का अभी तक समाधान नहीं किया गया है। पुलिस हिरासत में 147 मौतें, न्यायिक हिरासत में 1,882 मौतें और 2022 के पहले नौ महीनों में 119 न्यायेतर हत्याएं दर्ज की गईं। भारत की जेलों में 77% कैदी विचाराधीन हैं, भले ही कई को जमानत मिल चुकी हो।
प्रेस की स्वतंत्रता तेजी से क्षीण हो रही है; 2023 में भारत 180 देशों में से 161वें स्थान पर था। इंटरनेट बंद होना आम हो गया है, 2023 में 116 बार ब्लैकआउट हुए। मणिपुर उथल-पुथल में है, पिछले साल 175 मौतें और 60,000 से अधिक लोग विस्थापित हुए। जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति भी अत्यधिक असुरक्षित है। भोजन का अधिकार अभी भी अधूरा है, जबकि बेरोजगारी और भ्रष्टाचार बढ़ रहे हैं। अंधविश्वास का प्रसार और वैज्ञानिक सोच का पतन, जैसे कि कलबुर्गी और दाभोलकर जैसे तर्कवादियों की हत्या, चिंताजनक हैं।कार्य करने की आवश्यकता स्पष्ट है।
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