…इसी सियाह समुंदर से नूर निकलेगा

जनमन इंडिया ब्यूरो
( नोट : दिल्ली के गालिब इन्स्टीच्यूट में बीते 30 मार्च को मानवाधिकार पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राम जन्म पाठक ने अपने विचार रखे। उसे यहां अविकलरूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। – संपादक)
दिल्ली।
Respected friends, I want to put forth my point in my native language, Hindi.
सबसे पहले मैं संस्कृत के इस श्लोक की शरण लेता हूं, जिसमें कहा गया है कि
‘अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्’।
मैं मानवाधिकार को इस श्लोक के आलोक में देखता हूं। इसमें कहा गया है कि किसी को पीड़ा, पहुंचाना पाप और किसी का उपकार करना ही पुण्य है। मैं ऐसा मानता हूं कि कोई व्यक्ति अगर किसी को किसी भी किस्म की पीड़ा पहुंचाता है तो वह निश्चितरूप से उस व्यक्ति के मानवाधिकार का, निजता का, स्वतंत्रता का हनन करता है। अगर, जब यह पीड़ा पहुंचाने का काम स्वयं सरकार या सत्ता या पुलिस करती है, तो निसंदेह यह अपराध तमाम अर्थों में कई गुना गंभीर हो जाता है। यह रक्षक का भक्षक बन जाना है। जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो यह मानवता के सामने गंभीर संकट बनता जाता है। आज हम ऐसी ही परिस्थिति से दो-चार हो रहे हैं। मैं अपनी बात अपने गृह जनपद बस्ती में 25 मार्च को हुई एक घटना के माध्यम से प्रस्तुत करना चाहता हूं, जहां दुबौलिया थानाक्षेत्र के उभाई गांव में थाने में पुलिस द्वारा आदर्श उपाध्याय नामक युवक को बिना किसी एफआईआर के ले जाकर पीटा गया, जब वह अधमरा हो गया तो उसे उसके घर ले जाकर पटक दिया गया, जहां दो दिन बाद उसकी मौत हो गई। उत्तर प्रदेश में ऐसी घटनाए रोजमर्रा की चीज हैं। अब तो स्थिति यह है कि मीडिया, बुद्धिजीवी, सरकार कोई ऐसी घटनाओं पर बात भी नहीं करना चाहते। 1950 के दशक में जस्टिस आनन्द नारायण मुल्ला ने कहा था– I say this with all sense of responsibility that there is not a single lawless group in the whole of the country whose record of crime comes anywhere near the record of that single organised unit which is known as the Indian , particularly the Uttar Pradesh
Police.”
तबसे आज तक गंगा-जमुना में बहुत पानी बह चुका है, लेकिन स्थिति सुधरने के बजाय और भयावह हुई है। मैं इस बात को जोर देकर कहना चाहता हूं कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद से मानवाधिकारों के उल्लंघन में बढ़ोतरी हुई है। योगी आदित्यनाथ ने 20 मार्च 2017 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। तब से लेकर अब तक (मार्च 2025 तक), उत्तर प्रदेश में पुलिस मुठभेड़ों में तकरीबन 222 लोगों को जान से मारा गया है। आधिकारिक आंकड़ा 5 सितंबर 2024 तक है, जिसके मुताबिक इस हिंदू होली लैंड में 12,964 मुठभेड़ हुई है। “ऑपरेशन लंगड़ा” के तहत दिसंबर 2023 तक 5,896 लोगों के पैर में गोली मारी गई। आधिकारिक डेटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है, लेकिन अनुमानित रूप से अब तक 6,000 लोगों को इस तरह विकलांग किया गया है। ऐसी भी खबरें हैं कि जिनके पैर में गोली मारी जाती है, उनमें से बहुतेरे जेल में जाकर या अन्य जगहों पर हारी-बीमारी से जल्द ही मर-मरा जाते हैं। मृतकों में सबसे ज्यादा संख्या मुसलमानों की यानी 32.37 फीसद है। दलित 6.7 फीसद है। एक अध्ययनके मुताबिक मृतकों में मुस्लिम सबसे ज्यादा है। कुल मिलाकर, मुस्लिम और निचली जातियों (दलित, यादव, अन्य ओबीसी) का अनुपात उनकी आबादी के प्रतिशत की तुलना में एनकाउंटर में अधिक दिखता है, जो पक्षपात के आरोपों को बल देता है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने कुछ मामलों में संज्ञान लिया है। उदाहरण के लिए, 2019 में NHRC ने उत्तर प्रदेश में बढ़ते एनकाउंटरों पर सवाल उठाए और जाँच की मांग की। हालाँकि, कई मामलों में पुलिस को क्लीन चिट मिल गई आलोचकों का कहना है कि NHRC के पास सख्त कार्रवाई की शक्ति सीमित है, और यह सरकार के दबाव में प्रभावी कदम नहीं उठा पाता। सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2019 में एनकाउंटर में हुई मौतों को गंभीरता से लेते हुए रिपोर्ट माँगी थी। विकास दुबे एनकाउंटर (2020) जैसे हाई-प्रोफाइल मामलों में कोर्ट ने जाँच के आदेश दिए थे। अधिकांश मामलों में जाँच या तो पूरी नहीं हुई या पुलिस के पक्ष में नतीजे आए। यह सर्वविदित तथ्य है कि अदालतें बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप से बचती हैं, और इन्हें “कानून-व्यवस्था’ का बहाना बना देती हैं।
खतरनाक स्थिति तो यह है कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार एनकाउंटर को अपराध नियंत्रण की उपलब्धि के रूप में पेश करती है।
मैं इस सभा के माध्यम से निम्नलिखित प्रस्ताव पेश करना चाहता हूं-
वर्तमान में NHRC केवल सिफारिशें कर सकता है, जो सरकार या संबंधित प्राधिकरणों पर बाध्यकारी नहीं होतीं। सीधे कार्रवाई का अधिकार मिलने से त्वरित हस्तक्षेप संभव हो सकता है, जैसे हिरासत में यातना या पुलिस अत्याचार को तुरंत रोकना। अगर आयोग को दंड देने या कानूनी कार्रवाई शुरू करने का अधिकार मिले, तो उल्लंघन करने वाले अधिकारियों या संस्थाओं में डर पैदा होगा, जिससे मानवाधिकारों की रक्षा मजबूत हो सकती है।
अदालतों में लंबित मामलों की संख्या बहुत अधिक है। आयोग के पास सीधा अधिकार होने से पीड़ितों को तुरंत राहत मिल सकती है, बिना लंबी कानूनी प्रक्रिया के। बाध्यकारी शक्तियाँ मिलने से आयोग सरकार के दबाव से अधिक स्वतंत्र होकर काम कर सकता है, जो अभी एक बड़ी बाधा है।
अंत में मैं अपनी बात अमीर क़ज़लबाश के इस शेर से खत्म करना चाहता हूं-
मिरे जुनूँ का नतीजा ज़रूर निकलेगा
इसी सियाह समुंदर से नूर निकलेगा।
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